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________________ १८०] . श्री अमितगति श्रावकाचार न सम्यक्करणं तस्य, जायते ज्ञानतो विना। शास्त्रतो न विना ज्ञानं, शास्त्रं तेनाभिधीयते ॥७॥ अर्थ-आवश्यक क्रियाका भले प्रकार करना तिसके ज्ञान विना न होय है। बहुरि शास्त्र विना ज्ञान नाहीं ता कारण करि शास्त्र कहिए है ॥७॥ लाभपूजायशोऽथित्वे, तस्य सम्यक्कृताधषि । प्रशस्ताध्यवसायस्य, संभवो नोपलध्यते ॥६॥ अर्थ--लाभ पूजा यशके अर्थीपने करि वांछा सहित तिन आवश्यक क्रियाकौं भले प्रकार करे संत भी प्रशस्त परिणामका होना न पाइए है ॥८॥ तदयुक्त यतो नेदं, सम्यककरणमुच्यते । अत एवात्र मृग्यंते, सम्यकृत्यधिकारिणः ॥६॥ अर्थ-सो लाभ पूजादिककी वांछा सहित कारण योग्य नाहीं जाते वांछा सहित यहु कारण भला न कहिए है, इस ही तें इहां भले करने योग्यके अधिकारी हेरिए हैं। भावार्थ-भले प्रकार आवश्यक क्रियाका करनेवाला पुरुषका स्वरूप कहिए है ॥६॥ संसारदेहभोगानां, योऽसारत्वमवेक्षते । कषायेंद्रिययोगानां, जयनिग्रहरोधकृत् ॥१०॥ अर्थ-जो पुरुष संसार देह भोगनिका असारपना देखे है अर कषाय, इद्रिय, योग, इनका यथाक्रम, जय, निग्रह, रोध करै है । भावार्थ-कषायनकौं जीते है इन्द्रियनिकौं दमैं है, मन वचन कायके योगनकौं रोक है सो आवश्यक क्रियाका अधिकारी है ॥१०॥ आगें ताका विशेष स्वरूप कहैं हैंअनेकयोनिपाताले, विचित्रगतिपत्तने । जन्ममृत्युजरावत, भूरिकल्मषपाथसि ॥११॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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