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________________ अष्टम परिच्छेद [ १७६ अर्थ - नाना प्रकार जीवनिक होत सन्तें भी जे अज्ञानी है तिनका इसके ज्ञान उपकार होयगा । भावार्थ - आगमतौं अनन्त है सो सर्व कौन कहि सकै परन्तु इहां संक्षेपमात्र आवश्यकका स्वरूप कहिए है, जाकै जाने मोतें भी जे मंदज्ञानी है तिनका उपकार होयगा, ऐसा जानना है ॥ ३ ॥ आवश्यकं न कर्त्तव्यं, नै: फल्यादित्यसाम्प्रतम् । प्रशस्ताध्यवसायस्य, फलस्यात्रोपलब्धितः ॥४॥ प्रशस्ताध्यवसायेन, संचितं कर्म नाश्यते । काष्ठ niष्ठान्तनेव, दीप्यमानेन निश्चितम् ॥५॥ 1 अर्थ – कोऊ कहें कि आवश्यक करना योग्य नाहीं, जातें ताके फल रहितपना है ताकौं आचार्य क है हैं- सो कहना अयुक्त है, जातें इस आवश्यक विषै प्रशस्त परिणामनिकी प्राप्ति है ||४|| बहुरि प्रशस्त परिणाम करि संचयरूप जो कर्म सो निश्चयतें नाशिए है जैसें जाज्वल्यमान अग्निकरि काठ नाशिए तैसे ||५|| अर्थ- कोऊ कहै कि आवश्यक कता विछू फल नाहीं तातें आवश्यक न करना, ताकौं कह्या है कि आवश्यक किया करनेतें भले परिणाम होय हैं तिन तें कर्मका नाश होय है तातें आवश्यक क्रिया निष्फल नाहीं ॥४-५॥ जायते न स सर्वत्र, न वाच्यमिति कोविदैः । स्फुटं सम्यक्कृते तत्र तस्य सर्वत्र सम्भवात् ॥६॥ " अर्थ- सो आवश्यक क्रिया सर्व जायगा न होय है ऐसे पंडितनिकरि कहना योग्य नाहीं, जातें आवश्यक क्रियाकौं भले प्रकार करते सन्ते सब जायगा सम्भवै है । भावार्थ — कोऊ कहै कि आवश्यक सर्वत्र न होवें हैं ताकू आचार्य ने कह्या है कि भले प्रकार करें सर्वत्र होय है, यामैं संदेह न करना ॥ ६ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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