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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगे संसार निमित्त प्रशस्त निदानकौं कहैं हैंजातिं कुलं बांधववर्जितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्धद्य । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं जिनेन्दः ॥२२॥
अर्थ - जिन धर्मकी सिद्धिके अर्थ जातिकौं वा कुलकौं वा बांधवनि करि रहितपनेकौं वा दारिद्रपनेकौं वांछता जो निर्मल है प्रवृत्ति जाकी ऐसा पुरुष ताके जिनेन्द्र संसारके निमित्त प्रशस्त निदान का है ।
भावार्थ - कोऊ चाहै कि जाति कुल भला मिलै तामैं जिनधर्म सधै तथा बांधवादि आकुलताके हेतु हैं इन करि रहित होऊ जातें धर्म सधै सो ऐसी बांछा धर्मके आशयतें कथंचित् भली है तथापि जाति आदि संसार विना होय नाहीं, तातै संसार हेतु प्रशस्त निदान का ||२२||
उत्पत्तिहीनस्य जनस्य नूनं, लाभो न जातिप्रभृतेः कदाचित् । उत्पत्तिमा हुर्भवमुद्धबोधा,
भवं च संसारमनेककष्टम् ॥२३॥
अर्थ - उत्पत्तिरहित जो जीव ताकै निश्रयतें जाति आदिका लाभ कदाच होय नाहीं, बहुरि उद्धत है ज्ञान जिनका ऐसे ज्ञानी पुरुष हैं ते उत्पत्तिकौं भव हैं है । बहुरि भव है सो अनेक दुःखरूप संसार है ।
भावार्थ - जाति आदि संसार विना नाहीं तातें आत्मादिककी वांछा है, ऐसा जानना ॥ २३॥
संसारलाभो विदधाति दुःखं, शरीरिणां मानसमांगिकं च । यतस्ततः संसृतिदुःखभीतैस्त्रिधा निदानं न तदर्थमिष्टम् ॥ २४ ॥
अर्थ - जातै संसार लाभ है सो जीवनिकौं शरीर सम्बन्धी वा मन सम्बन्धी दुःख कर है तातें संसारके दुःखनतें भयभीत पुरुषनि करि संसारके अर्थ निदान है सो मन वचन काय करि नाहीं ईच्छिये है ऐसा जानना ||२४||