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सप्तम परिच्छेद
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स्थिते शरीरं ह्यबगाह्य कांडे,
जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ॥१६॥ अर्थ-जाके हृदय विर्षे तीन प्रकार यह शल्य है ताके समस्त व्रत नाशकौं प्राप्त होय हैं, जाते मनुष्यके शरीरको व्यापक वाणको तिष्टते संते काहेते सुख होय ? नहीं होय है ॥१६॥
प्रशस्तमन्यच्च निदानमुक्त्तं, निदानमुक्तौ तिनामृषीन्द्रः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदाद्विधा
प्रशस्तं पुनरभ्यधायि ॥२०॥ अर्थ--निदान रहित जे मुनीन्द्र है तिन करि व्रतीनके निदान है सो प्रशस्त अर अप्रशस्त ऐने दोय प्रकार कह्या है, बहुरि प्रशस्त निदान मुक्तिका संसारका निमित्त इन भेदनितें दोय प्रकार क ह्या।
भावार्थ-निदानके भेद दोय, एक प्रशस्त निदान दूजा अप्रस्त निदान ; तहां प्रशस्त निदानके भेद दोय, एक मुक्ति निमित्त, एक संसार निमित्त, ऐसा जानना ॥२०॥ आगें मुक्ति निमित्त निदानकौं कहैं हैं--
कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधि समाधि जिनवोधसिद्धिम् ।
आकांक्षतः क्षीणकषावृत्तेविमुक्तिहेतुः
कथितं निदानम् ॥२१॥ अर्थ--कर्मनिका अभाव अर संसारके दुःखकी हानि अर दर्शन ज्ञान तपस्वरूप वोधि अर समाधि कहिए ज्ञानसहित मरण अर जीवनकै ज्ञानकी सिद्धि इनकौं वांछता क्षीण कहिए मन्द है कषाय निकी प्रवृति जाकै ऐसा जो पुरुष ताकै मुक्तिका हेतु निदान कह्या है।
भावार्थ-निदान नाम वांछाका है सो मुक्तिहीकी वांछा है, जातें मुक्ति विना कर्मादिकका अभाव होय नाहीं तातै सो निदान मुक्ति हेतु कह्या, ऐसा जानना ॥२१॥