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________________ १४८ ] श्री अमितगति श्रावकाचार करि ब्रह्मचर्य विषै प्राप्त हुवा है चित्त जिनका ऐसे पोसहसहित पुरुषनि करि तिष्ठना योग्य है ॥ ८६ ॥ उपवासानुपवासकस्थानेष्वेकमपि विधत्ते यः । शक्त्यनुसार परोऽसौ प्रोषधकारी जिनैरुक्त: ॥६०॥ अर्थ - उपवास अर अनुपवास अर एकस्थान विषै एककौं भी जो शक्ति अनुसार धारै है सो यहु पोसह करनेवाला जिनदेवनि करि कह्या है ||६|| उपवासं जिननाथा, निगदंति चतुविधाशनं त्यागम् । सजलमनुपवासममी, एकस्थानं सुकृद्भुक्तिम् ॥ ६१ ॥ अर्थ — च्यार प्रकार आहारका जो त्याग ताहि ये जिननाथ उपवास कहै हैं अर जलसहितको अनुपवास कहै हैं अर एकवार भोजनकौं एकस्थान है हैं । भावार्थ - इहां जलमात्र लेय ताकौं अनुपवास कह्या सो उपवासका अभाव रूप अर्थ न लेना किंचित् उपवास है ऐसा अर्थ ग्रहण करना ॥ ६१॥ श्रागें भोगोपभोगपरिणाम व्रतकौं कहैं हैं : भोगोपभोगसख्या विधीयते, येन शक्तितो भक्त्या । भोगोपभोग संख्या शिक्षाव्रतमुच्यते सद्भिः ॥ २ ॥ अर्थ - जा करि शक्तिसारू भोग अर उपभोगकी संख्या करिए है सो भोगोपभोग संख्या नामा शिक्षा व्रत सन्तन करि कहिए है || २ || श्रागें भोगोपभोग का स्वरूप कहै है : तांबूल गंधलेपनमज्जनभोजनपुरोगमो भोगः । उपभोगो भूषा स्त्रीशयनासनवस्त्रावाहाद्याः ॥६३॥ अर्थ -- तांबूल सुगन्धलेपन स्नान भोजन इत्यादिक तो भोग हैं अर भूषण स्त्री शयन आसन वस्त्र वाहन इत्यादिक उपभोग हैं । एकवार भोगन में आवैं सो भोग अर वार वार भोगने में आवै सो उपभोग ऐसे जानना || ३ ||
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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