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________________ षष्ठम परिच्छेद [ १४१ अर्थ -- खेत विषं ग्राम विषें वन विषें गली विषे घर विषें घूरे विषें समूह विषे दूसरेका द्रव्य पड़ा होय वा भूला होय वा धरया होय सो भी ग्रहण करना योग्य नाहीं ॥ ५६ ॥ गायनके तृणमात्रमपि द्रव्यं, परकीर्य धर्मकांक्षिणा पुंसा । प्रवितीर्णं नाssदेनं वह्निसमं मन्यमानेन ॥ ६० ॥ , अर्थ - धर्म का वांछक जो पुरुष ता करि विना दिया पराया द्रव्य अग्नि समान मानता करि तृणमात्र भी ग्रहण करना योग्य नाहीं ॥ ६० ॥ यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । प्रश्वासकरं बाह्य, जीवाना जीवितं वित्तम् ॥ ६१ ॥ अर्थ - जो जाका धन हरै सो ताका प्राण हरे है जातें जीवन के थिरता बधावने वाला धन है सो बाह्य प्राण है ॥ ६१ ॥ सदृशं पश्यंति बुधाः, परकीयं कांचनं तृणं वाऽपि । संतुष्टा निजवित्तैः परतापविभीखो नित्यम् ॥ ६२ ॥ श्रर्थ--पंडित हैं ते पराये सुवर्णकौं वा तृणकौं समान देखे हैं, कैसे है ते अपने धननि करि संतुष्ट अर परकौं सन्ताप उपजावनें में भयभीत हैं ॥ ६२ ॥ तैलिकलुब्धकखरिकमार्जारव्याघ्रधोवरादिभ्यः । स्तनः कथितः पापी, संततपरतापदानरतः ।। ६३ ।। अर्थ - तेली वहेलिया खटीक विलाव वाघ ढीमर इन तें चोर हैं सो अधिक पापी का है, चौर निरन्तर परजीवनकौं दुःख देनें में तत्पर है ।। ६३ ।। ऐसे अचौर्य अणुव्रतका वर्णन किया। आगे परदारा त्याग अणुव्रतकौं कहै हैं- स्वसृमातृदुहितृसदृशीः दृष्ट्वा, परकामिनीः पटीयांसः । दूरं विवर्जयन्ते भुजगीमित्र, घोरदृष्टिविषाम् ॥ ६४ ॥ अर्थ - पंडित हैं ते परकी स्त्रीकौं बहनिसमान अर बड़ीकौ माता समान अर छोटीकौ बेटी समान देख करि भयानक दृष्टि विषें सर्पणीकी ज्यौं दूर त्यागें हैं ।। ६४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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