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________________ १३८ ] श्री अमितगति श्रावकाचार कामक्रोधक्रीडाप्रमादमदलोभमोहविद्वेषैः । वचनमसत्यं सन्तो, निगदंति न धर्मरतचित्ताः ॥ ४६ ॥ अर्थ - धर्मविषं रत हैं चित्त जिनके ऐसे संतजन हैं ते काम क्रोध क्रीड़ा प्रमाद लोभ मोह द्वेष इन भावनि करि असत्य वचनकौं न बोहैं || ४६ ।। सत्यमपि विभोक्तव्यं, पखीडारंभतापभयजनकम् पापं विभोक्तुकामैः, सुजनैरिव पापिनां वृत्तम् ।। ४७ ।। अर्थ - पाप छोड़ने की है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनि करि पर जीवनके पीड़ा आरम्भ सन्ताप भय इनका उपजावनेवाले सत्य वचन भी त्यागना योग्य है ।। ४७ ।। भाषते नासत्यं चतुः, प्रकारमपि संसृतिविभीतः । विश्वासधर्मदहनं, विषादजननं बुधावमतम् ॥ ४८ ॥ अर्थ – संसारतें भयभीत पुरुष हैं ते असदुद्भावन, भूतनिहव, विपरीत निंद्य ऐसे चारू हो प्रकार असत्यकौं न बोलै है, कैसा असत्य वचन विश्वास प्रतीति रूप धर्मकौं जलावनेवाला अर विषाद उपजानेवाला अर पंडितनि करि करी है अवज्ञा जाकी ऐसा है ॥ ४८ ॥ प्रथम असदुद्भावनं असत्यकौं क है है असदुद्भावनमाद्यं वचनमसत्यं निगद्यते सद्भिः । एकांतिका : समस्त भावा, जगतीति तत् ज्ञेयम् ॥ ४६ ॥ अर्थ – जगत विषै सकल पदार्थ हैं ते एकांतस्वरूप हैं ऐसें असत् कहिये' अविद्यमानका उद्भावन कहिये प्रकट करना सो, संतन करि प्रथम असत्य वचन जानना योग्य है ॥ ४६ ॥ आगे भूतिनिहक्कों कहै है सदलपनं द्वितीयं वितथं कथयंति तथ्यविज्ञानाः । सृष्टिस्थितिलययुक्त, किंचिन्नास्तीति तदभिहितम् ॥ ५० ॥ प्रथं - उत्पाद स्थिति नाश सहित किछू भी नाहीं है ऐसा कहना
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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