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________________ पंचम परिच्छेद । १२३ यत्र सूक्ष्मतनवस्तनू भृतः, संभवंति विविधाः सहस्रशः । पंचधा फलमुदुंबरोद्भवं, तन्न भक्षयति शुद्धयति शुद्धमानसः।६८। अर्थ-जाविर्षे सूक्ष्म हैं शरीर जिनके ऐसे जोव नानाप्रकार हजारां उपजै है तिस पांच प्रकार उदंबर जनित फलकौं शुद्ध है मन जाका ऐसा पुरुष है सो न खाय है। । भावार्थ-ऊमर, कठऊमर, पाकरफल, बड़, पीपर ये पांच उदम्बर फल हैं ते त्रसजीवनिके उपजने के ठिकाने हैं तातें बुद्धिवान इनका सर्वथा परित्याग करै है ॥६॥ क्षीरभूरुहफलानि भुजते, चित्रजीवनिचितानि येऽधमाः । जन्मसागरनिपातकारणं, पातकं किमिह ते न कुर्वते ॥६६॥ अर्थ-जे पापी पुरुष असंख्यात जीवनि करि भरे हुए क्षीरी वृक्षनिके फलनिकौं खाय है ते संसार सागरमैं डूबनेको कारण कौनसा पापकौं इहां न करै हैं, अपितु सव ही पाप करै हैं ।।६।। असंख्यजीवव्यपघातवृत्तिमिन, धीवरैरस्ति समं समानता । अनंतजीवव्यपरोपकारिणामुदुंबराहारविलोलचेतसाम् ॥७॥ अर्थ-अनन्त जीवनके नाश करनेवाले पंच उदंबरके आहार विर्षे है लोलुप चित्त जिनका तिनकी असंख्य जीवनके घातरूप है आजीविका जिनकी ऐसे ढीमरनि करि साथ समानता नाहीं है। भावार्थ-उदम्बरके खानेवालेकै ढीमरनतें भी अधिक पापीपना यहां दिखाया ऐसा जानना ॥७०॥ ये खादंति प्राणिवर्ग विचित्रं, दृष्ट्वा पंचोदुबराणा फलानाम् । श्वभ्रावासंयांति ते घोरदुःखं, कि निस्त्रिशैः प्राप्यते वा न दुःखम् ॥७१॥ अर्थ-जे नाना प्रकार जीवनिके समूहकौं देख करि पंच उदंबर
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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