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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ - समवायकरि कर्या भया सम्बन्ध नाहीं युक्त होय है, जातें नित्य अर व्यापक जो समवाय ताका सर्वत्र अविशेष है । ८६ ] भावार्थ - - नैयायिक समवाय पदार्थको नित्य अर व्यापक माने है ताक आचार्य कहै है ; ,1 जो समवायकर आत्मा अर ज्ञानका सम्बन्ध होय है तो घटपटादि अचेतन पदार्थ विषै ज्ञानका सम्बन्ध क्यों न भया ? समवाय तौ नित्य अर व्यापक भया भेद रहित माने है अर घटपटादि विषै समवाय का भेद मानेगा तौ नित्य व्यापक समवाय कहना न बनेगा तातं समवाय करि सम्बन्ध मानना मिथ्या है | आगैं आत्माकैं समवाय तिस सर्वथा नित्यपनामें वा अनित्यपनामें दूषण दिखावैं हैं ; नित्यताऽनित्यता तस्य, सर्वथा न प्रशस्यते । श्रभावादर्थनिष्पत्त ेः क्रमतोऽक्रमतोऽपि वा ॥४२॥ अर्थ - तिस समवाय सर्वथा नित्यपना वा अनित्यपना न सराहिए हैजा क्रमसः वा युगपत अर्थकी उत्पत्तिका अभाव है । भावार्थ - समवायकौं सर्वथा नित्य माननेमें क्रमसें वा युगपत अर्थ क्रियाका अभाव आ है ॥४२॥ सोही दिखाइए हैं न नित्यं कुरुते कार्य, विकारानुपपत्तितः । नानित्यं सर्वथा नष्टमारोग्यं मूतवैद्यवत् ॥४३॥ अर्थ - नित्य है सो कार्यकौं न करें हैं जातें नित्यकै अवस्था जो विकार विशेषता की अनुपपत्ति है, बहुरि अनित्य सर्वथा विनाशरूप सो भी कार्यकौं न करें है जैसे मृत वैद्य नीरोगपनेकौं न करें तैसें, जो आप ही नसि गया सो कार्य कैसे करें, ता नित्य वा अनित्य दोउ एकान्त मिथ्या है ॥४३॥ आगे अमूर्त्तीको एकांतकों निषेध करें है-
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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