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चतुर्थ परिच्छेद
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अर्थ-आप ही अचेतन कौं अकर्ता कह करि बहुरि चेतनकौं भोक्ता कहता जो सांख्य ताकू ज्ञान प्रगट नाहीं है, अज्ञानी है।
भावार्थ-सांख्य आत्माक आप ही अकर्ता कहै बहुरि ताही भोक्ता बतावै सो यहु प्रगट अज्ञान है तातै अन्य करै अन्य भोगै यह बात असम्भव है ॥३८॥
आर्गे सर्व गुणरहित होय सो मोक्ष है ऐसे श्रद्धानकू निषेधै हैं:सकलैन गुणमुक्तः, सर्वथात्मोपपद्यते । न जातु दृश्यते वस्तु, शशशृङ गमिवागुणम् ॥३६॥
पर्ण-समस्त गुणनिकरि रहित सर्वथा आत्मा न होय है जाते शशाके शृंगकी ज्यौं निर्गुण वस्तु कदापि न देखिए है।
भावार्थ-गुणका समूह ही गुणी है अर सर्वथा गुणका अभाव होते गुणीका भी अभाव है तातें गुणरहित मोक्ष कहना मिथ्या है ॥३६॥ ... आगें ज्ञानका अर ज्ञानौंका सर्वथा भेद मान है ताका निषेध करें हैं,
न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदः, सर्वथा घटते स्फुटम् । संबंधाभावतो नित्यं, मेरुकैलाशयोरिव ॥४०॥
अर्ण-सम्बन्धके अभावतें सर्वथा सुमेरु अर कैलाशकी ज्यों प्रगटपर्ने । ज्ञान और ज्ञानीका सर्वथा भेद बने है ।
___ भावार्थ-जैसे मेरु अर कैलाश भेदरूप हैं तिनका सम्बन्धका अभाव है तैसें ज्ञानका अर ज्ञानी का भेद माने सम्बन्धका अभाव आवे है॥४०॥
वहुरि हैं हैं जो समवायकरि सम्बन्ध होय है ताका निषेध करें हैं;
समवायेन सम्बन्धः, क्रियमाणो न युज्यते । नित्यस्य व्याधिनस्तस्य, सर्वत्राप्यविशेषतः॥४१॥