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©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©® बल से स्थितिघात, रसघात, गुण श्रेणि, गुण संक्रम, स्थिति बंध ये पांच पूर्व में न किए हों वैसे करता है।
चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय यहाँ से प्रारंभ होता है।
9. अनिवृत्तिकरण :- यहां से जीव दो विभाग में हो जाता है । क्षपक एवं उपशमक । 9वें गुण स्थान में आत्मा, सुक्ष्म लोभ के अतिरिक्त मोह को क्षय या उपशम कर देती है।
इस गुण स्थान में एक समय में चढ़े हुए सभी जीवों के अध्यवसायों की शुद्धि में निवृत्तितरतमता नहीं होती अर्थात सभी जीवों के अध्यवसाय समान होते हैं।
इसलिए इसे अनिवृत्ति बादर संपराय गुण स्थान कहा है, साथ बादर शब्द जोड़ दिया, स्थूल कषायों को निर्देश करने के लिए।
10. सूक्ष्म संपराय - संपराय : कषाय । आत्मा में जब मोहनीय कर्म उपशांत या क्षीण होते हैं, सिर्फ एक लोभ (राग) के सूक्ष्म अंश रह जाता है तब उस स्थिति का गुण स्थान 'सूक्ष्म संपराय' कहलाता है।
11. उपशांत मोह :- मोह का संपूर्ण उपशमन । दबे हुए शत्रु के समान मोह शांत होता है । बल मिलते ही दबा हुआ मोह पुन: आत्मा को गिराता है । कालक्षय से यदि नीचे आती है तो 7वें गुणस्थान पर आती है । फिर 6-7 गुणस्थान में उतार-चढ़ाव चलता है । उससे नीचे अंत में पहले गुणस्थान में भी आ सकती है । भव क्षय से गिरे तो देवलोक में उत्पन्न होने से 11वें गुणस्थान से सीधी चौथे गुणस्थान में पहुंच जाती है।
12. क्षीण मोह :- चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होने पर आत्मा की स्थिति इस गुण स्थान पर पहुंचती है । समभाव पूर्ण स्थायी है । मोह के समस्त (राग) पुंज उदित होने पर अटक जाता है और आत्म प्रदेशों में फिर उदित होती है । वह उपशम और केवलज्ञान प्रकट होते ही क्षय हो जाता है । इस गुण स्थान में मोह का क्षय होने पर फिर उद्भव नहीं होता। शुक्ल ध्यान समाधि की अवस्था है। 10वें गुण स्थान से 12वें गुण स्थान में चढ़ता है।
13. सयोगी केवली :- (शरीर धारी योगमुक्त केवली)
धाती कर्मों का संपूर्ण क्षय, केवल ज्ञान 13वां गुणस्थान प्रकट होता है । तीन काल के 9@GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO90 438 GOGOGOG@GOGOGOGOGOG@GOOGO