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सुवाक्यों द्वारा आत्मज्ञान
* जैसा भाव वैसा भव, जैसी गति वैसी मति । * सम्यक्त्व द्वारा आत्मा का आत्मिक सुख प्रगट होता है। * वजन घटते हुए जैसे संवेदन होता है, वैसे ही कर्म घटते होते ही जीव को संवेदन होता है। * कर्म का नाश शुभ ध्यान द्वारा होता है । ध्यान ग्यारहवाँ तप है । मृत्यु हो वहाँ सुख नहीं
होता, इसीलिए अजन्मा बनना चाहिए। * जब से धर्म भावना शुरू होती है, तब से उम्र की गिनती प्रारम्भ होती है। * इस भव में कर्मक्षय करना हो तो ज्ञान-ध्यान-वैराग्य होना चाहिए । ऐसे धर्म मार्ग में
प्रवेश करने के लिए, हम में भी रस-कस होना चाहिए। * हमारा संपूर्ण मनोबल संसार में खत्म हो गया इसलिए वृद्धावस्था में धर्म करते समय
रस-कस बहुत कम मात्रा में रह जाता है। * चक्रवर्ती जैसे समृद्धिवंतों ने भी संसार में सुख समझा/देखा नहीं। * स्वभाव से छूटे वह संसार में डूबे । * प्रतिकूल संयोगों के व्यक्तियों के साथ समता भाव में स्वस्थता पूर्वक जीना सीखो। * वस्तु के स्वरुप को समझो । फ्रीज में भी दही खट्टा ही होता है। * आयुष्य पूर्ण होने पर स्वर्गीय लिखा जाता है । परन्तु स्वर्ग में भी सुख कहाँ है ? वहाँ से
पुन: जन्म लेना पड़ता है । सम्यक्त्व रहित स्वर्ग के जीव अवश्य वनस्पतिकाय या
अपकाय में जन्म लेता है। * ऐश्वर्य तुझे छोड़े उसके पूर्व तू ऐश्वर्य को छोड़।
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