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इसके पश्चात् के तीसरे भव में पूर्व में अहिंसा, सत्य, करुणा, देव-गुरु भक्ति, दया, सरलता आदि गुणों द्वारा जो साधना की थी उस साधना के फल रूप जन्म लेते है और परमात्मा बनते हैं । यह उसका चरम अंतिम भव होता
© जन्म के साथ ही अमुक कक्षा का मति-श्रुत-अवधि विशिष्ट ज्ञान लेकर ही
जन्मते है । इस कारण ही वर्तमान, व्यतित, भविष्यमान की घटनाओं को
अंशत: देख सकते हैं। 0 गृहस्थ धर्म में होने के बाद भी आध्यात्मिक साधना प्रारंभ ही रहती है । स्वयं के
प्राप्त ज्ञान से स्वयं के भोगावली कर्म अवशेष है ऐसा जाने तो कर्मक्षय हेतु लग्न
स्वीकार करते हैं । यदि अनावश्यक हो तो अस्वीकार करते हैं। © उसके पश्चात् चारित्र, दीक्षा/संयम के अवरोध आने वाले चारित्र मोहनीय कर्म
का क्षयोपशम होते ही एक महा उपयोग से, विश्व कल्याण के लिए योग्य समय आते है ही चारित्र ग्रहण करते हैं । स्वयं का यथार्थ मार्ग जानना ही चाहिए ऐसे उत्कृष्ट आचार के योग से संपूर्ण ज्ञान ऐसा केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं । सर्वथा मोह का क्षय किए बिना ऐसा ज्ञान प्रकटित नहीं होता है इसलिए भगवान साधना में प्रचण्ड रूप से तैयार रहते हैं । अति निर्मल संयम की साधना, विपुल एवं अग्रकोटि की तपस्या को कार्य सिद्धि का माध्यम बनाकर गाँव-गाँव, नगर-नगर, जंगल आदि में विचरते हैं । 'सर्वज्ञ' की पदवी प्राप्त होते ही, विश्व के तमाम द्रव्यों-पदार्थों उसके पर्यायों, त्रैकालिक भावों को संपूर्ण रुप से जानने वाले तथा देखने वाले बनते हैं।
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