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* सीमातित विषय वासना, भोग विलास, परिग्रह की ममता।
* जीवात्मा प्रति समय ज्ञान, दर्शन, उपयोग वाला होता हुआ भी जब सामग्रीवश राग तथा द्वेष की लेश्याओं में वृद्धि होती है, तब कर्मों का बंध होता है।
सामान्य एवं विशेष अध्यवसायों से बांधे हुए कर्म फल की प्राप्ति समय उदय में आए हुए अन्य से उदय में लाए हुए एवं स्व तथा पर निमित्त को लेकर उदय में आते हैं।
दा. त. मनुष्य और तिर्यंच के जीव में निंद्रा' नामक दर्शनावरणीय कर्म विशेष प्रकार से उदय में होता है। जब नारकी जीव और देवों के निंद्रा का उदय अपेक्षा से बहुत कम होता है।
अन्य के कारण कर्म का उदय : कोई मनुष्य पत्थर फैंके या तलवार अथवा लकड़ी से अपने ऊपर हमला करे तब अपने को अशातावेदनीय कर्म उदय में आता है।
कर्म का 10 प्रकार से रसोदय होता है । 5, द्रव्येन्द्रिय द्वारा और 5 भावोन्द्रिय से। * इन्द्रियों के विषय में :- इन्द्रियों के दो भेद: 1. द्रव्येनिद्रय एवं 2. भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय :- इन्द्रियों के आकार रूप में बनता है वह (उसके दो भेद)
1. निवृत्ति :- बाह्य रुप इन्द्रियों का आकार दिखाई देता है, वह निवृत्ति और अंदर का आकार वह अभ्यंतर निवृत्ति ।
2. उपकरण : अभ्यंकर निवृत्ति, इन्द्रिय की ग्रहण शक्ति वह उपकरणेन्द्रिय ।
भावेन्द्रिय : कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से उन-उन विषयों को ग्रहण करने के परिणति विशेष वह भावेन्द्रिय, आत्मा के साथ संबंध रखती है।
1. आत्मा की विषय ग्रहण करने की शक्ति वह - लब्धि भावेन्द्रिय ।
आत्मा स्वयं उपयोग युक्त होकर विषयों को ग्रहण करे वह उपयोगेन्द्रिय सीमातीत विषय वासना, भोग विलास, परिग्रह की ममता तथा अतिउत्कृष्ट पापों के कारण जीव एकेन्द्रिय का अवतार प्राप्त करता है। इसमें पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय जीवों का समावेश होता है।
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