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4. साक्षात् भोक्ता :- स्वयं के लिए पुण्य पाप के कर्मों को पुरुष प्रत्यक्ष भोगने वाला है; चैत्यन्यमय आत्मा के प्रयत्न के बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकते; इससे आत्मा में कर्तृव्य एवं भोकतृत्व भी है।
5. स्वदेह परिमाण :- जैन दर्शन का उत्तर है कि आत्मा शरीर व्यापी है, सर्वत्र व्याप्त नहीं है, आत्मा के गुण शरीर में ही दिखाई देते हैं, आत्मा के ज्ञानादि गुण, सुख, दुःख के पर्याय शरीर में ही मालूम होते हैं। __आत्मा में संकोच तथा विस्तार की शक्ति रही हुई है जिससे चींटी और हाथी जैसे शरीर में अबाध रूप से रह सकती है, परन्तु अन्य के दुःखों का संवेदन अपने को नहीं होता, आत्मा शरीर व्यापी होने से उसके किसी भी स्थान में यदि वेदना होती है तो उसका अनुभव आत्मा को होता है।
6. प्रति शरीर भिन्न :- पूरे ब्रह्मांड में एक ही आत्मा नहीं हो सकती, किन्तु प्रत्येक चेतन शरीर में जो आत्मा बसी हुई है, वह भिन्न-भिन्न है । जो पूरे संसार में एक ही आत्मा मानते हैं तो सभी के शरीर, सुख-दुख, ज्ञान, इच्छा, राग, द्वेष और मोह-माया भी एक जैसे होने चाहिए। ऐसा अनुभव नहीं होता । प्रत्येक शरीर में आत्मा पृथक-पृथक मानने से ही संसार का प्रत्यक्ष व्यवहार सत्य रूप में अनुभवित होगा।
7. पौद्गलिक अदृष्ट :- आत्मा अजर, अमर, अछेद्य, अभेद्य है। परंतु कर्म के आवरण के कारण वर्तमान में ऐसा अहसास होता नहीं है । पौद्गलिक अदृष्ट ऐसा - कर्म माया, प्रकृति, वासनारूपी मिट्टी के भार से आत्मा रूपी तूंबड़ा ढंक गया है । नए-नए शरीर में वेदनाएँ भोगना पड़ती हैं, भावांतर में भटकना पड़ता है, आदि अदृष्ट पुद्गल का प्रभाव है। __ आत्मा के स्वरूप को न जानने वाले, विपरीत बोलने वाली या असत्य बोलने वाली आत्मा अगले भव में गूंगापन, जड़बुद्धि, लंगड़े-लूले अंग, तोतला, बोबड़ा बोलना एवं दुर्गंध युक्त मुख को प्राप्त करने वाली होती है । ऐसा शास्त्रीय कथन है।
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