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प. पू. भद्रबाहु स्वामीजी 'अध्ययन' शब्द की व्याख्या सबसे पहले समझाते हैं 'अज्झप्पसा' :- अध्यात्मा की प्राप्ति जिससे होती है वह अध्ययन ।
'आध्यात्म' यानि क्या ? सरल भाषा में कर्मरज से मलिन आत्मा का शुद्ध स्वरूप आत्मा की ओर प्रयाण (प्रस्थान) यही आध्यात्म ।
आध्यात्म :- शुद्ध स्वरुपी आत्मा की प्राप्ति जिससे होती है वह आध्यात्म ।
आध्यात्म आत्मा में 'विवेक' पैदा करता है, विवेकी मनुष्य - हेय, ज्ञेय और उपादेय का भेद जानता है । विवेकी जीव आश्रय का निरोध कर, पूर्वकृत कर्मों को शुद्ध करने का प्रयत्न प्रारंभ कर देता है । पूर्व संचित कर्मों का क्षय और नए कर्म संचय का निरोध । इसके मूल में श्रुतज्ञान ही है।
इसीलिए आध्यात्म शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति के लिए श्रुत ज्ञान की उपासना एवं तत्व की भावना अनिवार्य अंग कहा है; याद रहे - जैन शासन में प्रत्येक व्यवहार में श्रूत ज्ञान, केवलज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण कहा है।
आज की बात 'चित्तशुद्धि' प. पू. आ. जयघोषसूरीश्वरजी म. की हितशिक्षा का सारांश * जो चित्तशुद्धि होती है तो बाह्य परिबल शुभ मिलता है एवं आंतरिक परिणति भी उज्ज्वल बनती है।
* शुभ निमित्त, शुभ योग, शुभ भावना, चित्त शुद्धि से मिलते हैं । जैसे-जैसे अशुभ हो तो वह आभ्यंतर और बाह्य स्तर छूटता जाता है । चित्त विशुद्धि से अशुभ विकल्प छूटते हैं, किन्तु बाह्य भूमिका में आसन्निमितो से भी आत्मा दूर रहती है।
* चित्त शुद्धि कैसे मिलती है ?
शुद्धि, स्यात् ऋतुभूतस्य :- जो सरल बनता है वह नम्र बनता है, उसको शुद्धि मिलती है। सरल बनने के लिए 'अज्ञान' एवं 'वक्रता' दोनों का त्याग करना पड़ता है । अज्ञान समर्पण से जाता है । अगीतार्थ साधु भी जो भूल करे और वह गीतार्थ को समर्पित होगा तो GOOGOGOGOGOOGOGOGOGOOGOGO 373 Gee®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGO