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यथार्थवादी प्रभु महावीर ने कहा कि - "माकंदीपुत्र अणगार ! वे जीव मानव जन्म प्राप्त कर सभी कर्मों का क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं, कृष्ण लेश्या वाला भी, ये तीन प्रकार के जीव मनुष्य जन्म में आकर मोक्ष प्राप्ति में भाग्यशाली हो गए । अग्निकाय एवं वायुकाय के जीव इस प्रकार मनुष्य भव प्राप्त नहीं कर सकते।
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चरम अर्थात् जिसका सर्वदा अंत हो जाए
दा. त. केवली भव्यात्मा स्वयं के जीवन में शेष रहे वेदनीय, गौत्र और नाम कर्म तीनों अघाती कर्मों की निर्जरा करके और अंतिम आयुष्य कर्म को अंतिम समय में वेदन करते कर्म को चरम' कहा जाता है । इसका हमेशा के लिए अंत हो जाता है।
* क्रियाएँ 5 प्रकार की हैं - 1. कायिकी, 2. अधिकरणिकी, 3. परितापनिकी, 4. प्राद्वेषिकी, 5. प्राणातिपातिकी। __ * किसी भी स्थान पर वायुकाय के बिना अग्निकाय अकेला नहीं रह सकता । कैसी भी हवा (वायु) या अग्नि हो तो सचित होती है । वायकाय के बिना अग्निकाय प्रज्ज्वलित नहीं रह सकती।
* पृथ्वीकाय जीव आदि :
पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय जीव के विषय में - पृथ्वीकाय की सात लाख योनियाँ होती हैं । सभी अलग-अलग आहार वाला, उसका परिणमन करने वाले, कृष्ण-नील-कपोत तेज लेश्या धारण करने, मिथ्या दृष्टि वाला, मति अज्ञान और श्रुत-अज्ञान वाले होते हैं।
केवल कर्मयोग के मालिक, साकार उपयोग (ज्ञान) और निराकार उपयोग (दर्शन) दोनों पृथ्वीकाय जीवों के होते हैं । ज्ञान अस्पष्ट होता है । अभाव नहीं होता, अन्यथा जीव का लक्षण घटता ही नहीं।
आहार में द्रव्यरूप सर्वात्म प्रदेशों से, क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशावगाढ़, काल से 9@GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO 370 GOGOGOG@GOGOGOGOGOG@GOOGO