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आत्मा की ओर दृष्टि करें 'जिनाज्ञा' मासिक पत्र में से - प. पू. अजीतशेखरसूरीश्वरजी म. निष्फल एवं नकारे विचार, अनन्य एवं अति भयंकर रोग है । इन्हें दूर करने के उत्तम उपाय हैं?
हाँ ! चित्त को शास्त्रों के अत्यधिक अध्ययन, वांचन, मनन, परावर्तन में लगा देना चाहिए । शास्त्र-सूत्र-अर्थ-आदि कंठस्थ होकर उनका मन में बारम्बार परावर्तन शक्य न तो भी वांचना में से डायरी में थोड़ा-थोड़ा लिख लेना, एवं उसे बार-बार पढ़कर कंठस्थ करने का प्रयत्न करना एवं फिर परावर्तन करना । बस, चित्त उसमें लगा रहने से निष्फल-निष्काम विचार बहुत कम हो जाएंगे।
दूसरे उपाय से विचारों तो, जगत के बड़े पदार्थ या छोटी-छोटी वस्तु, इसमें कोई एक भी दुनिया का या आस-पास का देखने का था विचारने का होता है ? ना, तो हम किसलिए देखने-विचारने का लेकर बैठ जाए और फालतु दुःखी होते हैं ?
जो जड़ पदार्थ है वह बाहर का विचार नहीं कर सकते, वैसे ही मुझे जड़ के प्रति बअलबत्त विशेषता ध्यान रखना है । आत्मा की ओर दृष्टि करके विचारते रहने की आदत डालना है। * ज्ञानी भगवंत हमें मूर्ख रुप कैसे समझ गए ? 1. जिस प्रकार मिली हुई चंदन की लकड़ी को जलाकर कोयला बनाकर बेचते हैं वह मूर्ख
है, उसी प्रकार अति मूल्यवान मनुष्य भव का समय जो आत्म चिंतन रुप विशिष्ट धारण करता है वह घर, परिवार, दुनिया की चिंता में जलाकर, चंदन के कोयले तैयार
करने के बराबर है। 2. जिस प्रकार चिन्तामणी छोड़कर काँच को पकड़े वह मूर्ख है। वैसे दान, शील, तप,
भाव, विविध अनुष्ठान रुप चिन्तामणी है, पुण्य उपार्जन करने वाले है । चिंताएँ दूर करने वाले हैं, यह छोड़कर गाँव प्रपंच, पंचात, टीवी, बिस्तर में पड़े रहने का आलस्य आदि काँच पकड़ने के बराबर है।
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