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GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGOGOGOGOGOG चिंतातुर हो गए। इधर अग्नि शर्मा तापस राजा के आंगन में आया लेकिन किसी ने सत्कार नहीं किया। राजा की बेचैनी में सभी इधर-उधर भागमभाग में लग रहे थे, किसी को मालूम नहीं पड़ा । बिना बोले ही वापिस चले गए। अगला मास क्षमण प्रारंभ हो गया और साधना प्रारंभ हो गई।
गुणसेन स्वस्थ होकर तापस से क्षमा मांगी। अगले पारणे के लाभ की विनंती की फिर दूसरी बार युद्ध में जाने का योग आ गया। तापस आकर लौट गया। फिर तीसरी बार ऐसा ही हुआ गुणसेन को क्षमा करते रहे।
ज्ञानियों ने इस क्षमा को दबी हुई अग्नि (सप्त ज्वालामुखी) जैसी कहा है। अग्नि शर्मा तापस कषायों से घिर गए । मन में विचार उठा - गुणसेन ने तीन-तीन बार ऐसा क्यों किया ? फिर इसने मेरी विडंबना करने की ठानी है ऐसा लगता है ? ऐसा विचार आते ही निदान कर लिया (निदान = अमूल्य वस्तू को कम मूल्य में दे देना) मेरे तप का प्रभाव हो तो मैं इसे भवोभव मारने वाला बनूं।
अनंतानबंधी क्रोध संज्वलन जैसा दिखाई देता है । निमित्त नहीं मिलता इतने उपशांत होकर दबा पड़ा रहता है, निमित्त मिलते ही भड़क उठता है ज्वालामुखी के समान।
अनंतानुबंधी क्रोध आदि के कारण (अग्नि शर्मा जैसे तापस के समान) सर्व गुण उन्मार्ग में ले जाने वाले बने । इनकी सरलता भी उन्मार्ग पर ले जाती है । ज्ञान वैभव और उसका बोध भी उन्मार्ग की तरफ ले जाने वाला बनता है।
कार्तिक सेठ और गैरिक तापस सौधर्म देवलोक के इन्द्र का पूर्व भव यानि कार्तिक सेठ । कल्पसूत्र के प्रवचन में कार्तिक सेठ की कथा आती है।
* सम्यक्दृष्टि - कार्तिक सेठ अपने समकित को निष्कलंक रखते थे।
* गैरिक तापस मिथ्यादृष्टि होने पर भी गांव की जनता पूजा सत्कार करती थी, किन्तु कार्तिक सेठ कभी भी नहीं गए न उसके स्वागत सत्कार के सहभागी बने । तापस को इस बात से बहुत रुष्टमान था कि सारी जनता आती है, सेठ नहीं आता।
* गैरिक तापस के मासक्षमण का पारणा था - राजा ने पारणे का निमंत्रण दिया । तापस ने राजा से कहा - कार्तिक सेठ भोजन परोसे तो पारणा करूं। राजा ने सेठ को संदेश भेजा । राजा का दिल न दुखे इसलिए सेठ ने स्वीकार किया । तापस खुश हो गया । सेठ ने भोजन परोसा तो तापस ने नाक पर अंगुली फेर कर इशारा किया तेरा नाक कट गया। 5@G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©G@G@ 332 509G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©GO