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©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©G लगा कि आवाज बन्द हो गई तो घिसना बंद हो गया या क्या हुआ? मंत्री से पूछने पर मालूम हुआ कि एकएक कंगन से आवाज बंद हो गई। राजा के मन मस्तिष्क में मंथन चालू हो गया।
ओह ! ओकाकि कंगन कितना श्रेष्ठ है ? विचार चलते-चलते चारित्र मोहनीय का बंध टूट गया।
राजा निद्राधीन हो गया और स्वप्न आया। स्वप्न में अपने को मेरु पर्वत पर खड़े देखा। जाति स्मरण ज्ञान हो गया । पूर्व भव देखा । उत्कृष्ट पुण्यबंध का हेतु चारित्र पालन कर अनुत्तर विमान वासी देव हुआ, उस समय मेरु पर्वत पर गया था आदि ....। निद्रा खुली नमिराजा की चारित्र लेने के उत्कृष्ट भाव हुए। रोग ठीक हो गया और चारित्र लेकर घर से प्रस्थान कर दिया।
इन्द्र महाराज की इच्छा हुई कि नमि राजऋषि की परीक्षा की जाए। त्याग में कितने दृढ़ हैं । ब्राह्मण रुप में मुनि के पास आकर प्रश्न किया - तुम्हारा अंत:पुर जल रहा है, नगर में अग्नि ज्वाजल्यमान है, सभी को सुखी करके फिर चारित्र लो तो ठीक है। अभी तो अंत: पुर जल रहा है तो उसकी व्यवस्था करो । चारित्र दया पालने के लिए है। पहले जलने वाले पर दया करके बचाओ।
प्रत्येक बुद्ध नमि राजर्षि ने उत्तर दिया - मैं सुख में हूँ, सुख से जी रहा हूँ, क्योंकि मेरा कुछ नहीं है । मिथिला नगरी जल रही है, उसमें मेरा तो कुछ भी नहीं जल रहा है।
उत्तराध्ययन सूत्र की अनेक युक्तियों से मुनि ने ब्राह्मण को निरुत्तर कर दिया । तब इन्द्र ने अपना स्वरुप प्रकट किया । नमस्कार कर उनकी स्तुति करने लगा :
अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो पराइओ । अहो ते णिरक्कियां तिरक्कयां माया, अहो लोहो वसीकओ ॥ भावार्थ - अहो ! आपने क्रोध को जीत लिया, अहो ! मान का पराजय कर दिया, माया का आपने तिरस्कार कर दिया, अहो ! आपने लोभ को वश कर लिया है । आपका जीवन धन्य है । पुन: पुन: नमन करते हुए इन्द्र अपने स्थान पर चले गए और नमि राजर्षि विचरण करते हुए अनुक्रम से केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष गए।
नमि राजर्षि ने इन्द्र की अनेक युक्तियों के सामने धर्म का त्याग नहीं किया, जिससे ज्ञाता सूत्र में महावीर ने उनकी प्रशंसा की है । ऐसे नमि राजर्षि सभी भव्यआत्माओं के सुख के करने वाले हों।
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