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शुक्ल ध्यान द्वारा केवलज्ञान की क्रिया
आत्मा का ऊर्ध्वगमन
1. मोहनीय कर्म का प्रशांत या क्षीण अवस्था का अति सूक्ष्म साधन का प्रथम भेद है । पृथकत्व वितर्क सविचार ( भेद प्रधान चिंतन विचरण सहित) ध्यान । यह ध्यान विचरण सहित होते हुए भी एक द्रव्य विषयक होने से मन को स्थिर करने वाला है ।
परमाणु आदि जड़ या आत्मरुप चेतन ऐसे एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्त्ततत्व, अमूर्त्तत्व आदि अनेक पर्यायों का विविध दृष्टि बिंदु द्वारा भेद प्रधान चिंतन एवं एक 'योग' से दूसरे 'योग' ऊपर अथवा शब्द ऊपर से 'अर्थ' ऊपर और अर्थ पर से 'शब्द' ऊपर का चिंतन ।
2. एकत्व वितर्क अविचार ध्यान :- एक ही पर्याय के ऊपर चिंतन, विचरण आदि का अभेद प्रधान ध्यान ध्येय से अभेद होता है । मन, वचन, काया के त्रियोग में से एक ही योग पर पुर्णतः दृढ़ होकर प्रवर्तमान रहते हैं । यह ध्यान अत्यन्त प्रखर होता है । संपूर्ण जगत के पदार्थों में अस्थिर रूप में भ्रमणशील मन को ध्यान द्वारा किसी एक अणु पर्याय पर लाकर स्थिर किया जाता है ।
यहाँ मोह आवरण का संयोग पूर्णत: दूर हो जाने से संपूर्ण ज्ञान - दर्शन - अंतराय का आवरण हट जाता है और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है ।
3. सूक्ष्मक्रिया ध्यान :- केवली भगवंत का मृत्यु समय का ध्यान है, श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म शरीर क्रिया ही शेष रहती है । 'योग निरोध' के कार्यक्रम में सूक्ष्म शरीर योग के आश्रय से वचन और मन के सूक्ष्म योगों का निरोध किया जाता है ।
4. समुच्छिन्नक्रिय ध्यान :- यहां आत्म प्रदेशों का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है । देह पवित्र आत्मा का उर्ध्व गमन । शुक्ल ध्यान के प्रथम दो भेद हैं, उनकी साधना से क्या फल मिला ? उपयोग में स्थिरता आई, योग में स्थिरता आई, मोह आवरण का संयोग पूर्णत: छूट जाने से केवल ज्ञान ।
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