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पड़ता है । इसलिए संसारी जीव को मोक्ष जाने का मार्ग प्राप्त करना ही है । सांसारिक सुख सुविधाओं में सुख मानना - मीठी खुजली रोग जैसा है । उसमें सुख नहीं है ।
दशा बदलने के लिए दिशा बदलना पड़ती है । क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य, अहिंसा, तप आदि गुणों का अनुभव आत्मामय है । जैसे-जैसे गुण प्रकट होते हैं; वैसे-वैसे मोक्ष की आंशिक अनुभूति होना चाहिए ।
मोक्ष किसको कहोगे ?
* आत्मा के मूल भूत स्वभाव को प्रकट करना उसका नाम मोक्ष है ।
आत्मा की सर्व दुःख रहित, सर्व पाप रहित, सर्व दोष रहित अवस्था ही मोक्ष है । सभी गुणों का प्रकटीकरण ही मोक्ष है । व्यवहार से 14 राजलोक के ऊपर के अंतिम छोर की सिद्धशिला पर पहुँचना ही मोक्ष है ।
लक्ष्य मोक्ष का - मोक्ष को लक्ष्य में रखकर की गई सांसारिक क्रिया भी दुर्गति को दूर करती है । मोक्ष के लक्ष्य के बिना की हुई धार्मिक क्रिया सद्गति की गारंटी नहीं दे सकती । मोक्ष का लक्ष्य प्रबल स्वरूप में रखा जाए तो वह लक्ष्य सम्यक्त्व की निशानी है । समकित की प्राप्ति के बाद अगले भव में वैमानिक देवलोक का ही आयुष्य बंधता है ।
* 10 प्राण – 5 इन्द्रियाँ मनबल वचन बल कायबल+आयुष्य+श्वासोच्छ्वास ।
ये 10 द्रव्य प्राण है । भाव प्राण दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि है । प्रमत्त योग से, प्राण का वियोग करना, कराना और अनुमोदन करना ये हिंसा है, इसलिए आत्मा मरती नहीं है तो हिंसा कहां से होती है, ऐसा नहीं सोचना ।
प्रमत्त योगात् - प्राण व्यपरोपणं हिंसा ।
अन्य जीव मरे नहीं इसका पूर्ण उपयोग रखने के साथ क्रिया करना, फिर भी कोई जीव मर जाय तो उसकी हिंसा का पाप नहीं लगता, क्योंकि वहां प्रमाद कारण नहीं है । जीव न मरे 1 उसको पूर्णत: देखा नहीं जाता । प्रमाद हो और दौड़-भाग करते भी जीव न मरे तो भी हिंसा का पाप लगता है ।
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