SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ GG भीतर में पाप करने की प्रवृत्ति सदा की है तो उसका कर्म बंध हमेशा होता ही रहेगा । इन कर्म बंध से छूटने के लिए हमेशा नित्य नए व्रत - नियम- प्रत्याख्यान करते रहना चाहिए । * विज्ञान और धर्म :- पदार्थ में परिवर्तन लाए वह विज्ञान एवं आत्मा में परिवर्तन लाए वह धर्म । * 'प्रत्याख्यान (त्याग, नियम) लिया और टूट जाय (खंडित हो जाए) तो इससे अच्छा कि नियम लेना ही नहीं चाहिए। ऐसा मन में विचार करना, प्रवृत्ति या परिणति होना, उत्सूत्र वचन है ऐसा कभी मन में नहीं सोचना । ऐसा सोचने से, ऐसा मानने से प्रायश्चित आता है (दोष लगता है) इसलिए नियम तो लेना ही चाहिए । कभी ऐसा संभव हो तो कुछ छूट रख कर लेना । कदाचित कोई ऐसा अवसर आ गया हो कि नियम टूट गया तो उसका प्रायश्चित जरूर ले लेना चाहिए लेकिन नियम के बिना नहीं रहना । मन की दृढ़ता के साथ लिया हुआ नियम कभी टूटता नहीं । कोई ऐसा ही अनिवार्य कारण बनता है कि मजबूरी में नियम तोड़ना पड़ता है या टूट जाता है; टूटने में जो दोष लगता है उससे ज्यादा नियम न लेने से दोष लगता है । तंदुलिया मत्स्य सातमी नरक में जाता है क्योंकि उसके मन में सदा पाप वृत्ति के ही भाव रहते हैं । * गृहस्थ जीवन सर्वविरति की Net Practice के लिए है। बेकार जीवन जीने के लिए नहीं । अपना मूल कहाँ है ? - निगोद में, अव्यवहार राशि (ऐसी आत्मा जो एक बार भी दुनिया में व्यवहार योग्य नहीं बन सकी ) की गोद में, वहाँ से बाहर निकले तो किसके प्रभाव से ? धर्म के प्रभाव से । सहन करना वह धर्म | दान में :- धन की मूर्छा में घटन आये तो वह दान, धर्म । शील में :- काम वासना में घटन आये तो मन को सहना पड़े तो वो धर्म | तप में :- शरीर को सहन करना पड़ता है इसलिए वह उसका धर्म है । भाव में :- दुर्भावों को दूर करने के लिए, शुभ भावों को मन में उत्पन्न करना पड़ता है, मन को सहना पड़ता है, इसलिए वह धर्म है । इच्छापूर्वक सहन करते हैं तो कई कर्मों का नाश होता है । यह सकाम निर्जरा । बिना इच्छा के अनजाने में या दूसरे के द्वारा सहन करना पड़ता है । वह अकाम निर्जरा कहलाती है। १९७९ 212
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy