________________
GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOG@GOGOG@GOGOGOGOGOGOG
प्रकृति में परिवर्तन आता है तब कर्मबंध में बहुत इजाफा होता है।
निसीहि-निसीहि बोलकर मंदिर में प्रवेश करते समय संसार का विचार नहीं करूं, इसलिए निसीहि का अर्थ प्रथम श्रद्धा अर्थात् मस्तक पर तिलक करना । यानि प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करना । संसार छोड़ने जैसा है, संयम लेने जैसा है । मोक्ष प्राप्त करने जैसा है । इस त्रिपदी का भाव आत्मसात हो उसको उस निमित्त का पुण्यबंध होता है । प्रतिदिन इस त्रिपदी का स्मरण करते रहो।
तुम अंदर से क्या हो वह बहुत गंभीर विषय है । सरल स्वभावी मनुष्य भी अंदर यह सोचता है कि समय आने पर कभी छल-कपट करना पड़े, ऐसा मानने वाला उसका समर्थक है। उसको कर्तव्य मानकर चलता है तो अनुमोदना से पाप तो उसे लगता ही है।
हिंसा का आचरण करें परन्तु मन में अच्छी न मानने पर निमित्त से परे तो बना ही। इसलिए समता में रहने की क्षमता वाला है - यह इसका निचोड़ निकलता है । धर्म की सफलता असफलता का आधार तुम्हारी मनोवृत्ति है।
* भावमन की 4 शक्तियाँ हैं :1. संवेदन शक्ति 2. विचार शक्ति, 3. ज्ञाता शक्ति और 4. परिवर्तन शक्ति।
इस मनोशक्ति को विकसित करने का एकमात्र उपाय ध्यान है । ध्यान में बैठने से पहले चिंतन, भावना और अनुप्रेक्षा इस प्रकार 3 स्वरुप हैं
द्रव्यमन - विचार करने का साधन है । इस साधन के द्वारा अंतर आत्मा में उत्पन्न होने वाले भावों के समूह को भावमन कहते हैं।
उदाहरण :- कान साधन हैं - सुनने का । सुना या विचार किया यह ज्ञान है । शब्द का अर्थ समझो वह ज्ञाता शक्ति कान रूपी साधन से मिलती है उसमें मन से काम लेकर जो भाव अंतर में उत्पन्न किए वे भावों का समूह भावमन कहलाता है। * श्रद्धा और विश्वास, मान्यता और परिवर्तन यह जीवन का सच्चा कवज है।
"श्रद्धांध"
50505050505050509050505009017890090050505050505050509050