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IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII 'आग्रह नहीं वहां अपेक्षा नहीं जहां अपेक्षा नहीं वहां अशांति नहीं । समाधान युक्त आत्मा को सहज समाधि प्राप्त होती है । सम्यग् ज्ञान ऐसा ही होना चाहिए । यह हठवादिता से विजय प्राप्ति करवाता है। संसार की प्रवृत्ति में पूरा ध्यान रखकर निराग्रही बनना । मनोनिग्रह करने से ध्यान तो आता ही है साथ ही जीवन में कहीं संघर्ष भी नहीं आता और न ही अशांति का सर्जन होता है। जीवन झरना शांत बहता रहता है।
ध्यान 4 प्रकार का ध्यान :पिंडस्थ, पदस्थ, रुपस्थ, रुपातीत । धर्मध्यान:- आज्ञाविचय, अपाय विचय, विपाक विचय, संस्थान विचय ।
ध्यान की भूमिका में यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, मन की उद्विग्नता को बढ़ाने वाले आहार का त्याग, मन-वचन-काया की वृत्ति-प्रवृत्तियों पर नियंत्रण, निमित्तों का त्याग, मौन-वृत्ति आदि अनेक अंग मनोविजय के महत्व के अंग है।
भावांतर में भी मनोनिग्रह की साधना सानुबंध बनती है । अशुभ से दूर रहिए । आत्मा में शुभ संस्कार ही भवांतर में साथ आते हैं । साधना से मन की तृप्ति अप्रशस्त (गलत) योग है। समाधान और मनोनिग्रह प्रशस्त योग है । कुर्यात सदा मंगलम्।
'मनोविजय और आत्मशुद्धि' पुस्तक में से
Analysis of चेतना - शुद्ध भाव, भाव मन - अशुद्ध भाव द्रव्यमन जड़ अणु-परमाणु की रचना है, इसलिए आत्मा से अलग समझा जाता है । आत्मा चैतन्यमय है । मस्तिष्क (दिमाग) जिसको अपने जैन विज्ञान में ‘मन:पर्याप्ति' कहते हैं वह भी जड़ है । मस्तिष्क में रहे हुए सूक्ष्म ज्ञान तंतु, उसमें रहे हुए नर्वस सिस्टम (चेतना तंत्र), जैविक रसायन और प्रवाही सभी जड़ की रचना का संयोजन है । अत: इन सबका नियंत्रण चेतन से होता है । मन: पर्याप्ति जड़ है, द्रव्यमन जड़ है इसलिए आत्मा से अलग है, उसको सरलता से समझा जा सकता है।
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