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तब संसार के प्रति जीव को भय प्राप्त होता है । सांसारिक सुख अंगारे समान जलाते
* मोहनीय की सत्ता दूर करने से ही भाव धर्म उत्पन्न होता है । परमात्मा के वचन के
मर्म को समझकर अपने मर्म से मृत्यु का भेद समझा जा सकता है। * भाव धर्म, दिशा निश्चित कराता है फिर प्रवृत्ति रुप धर्म उसमें बेग उत्पन्न करता है। * संसार के प्रति क्यों अभाव पैदा नहीं होता ?
क्योंकि संसार के पदार्थों को आदि (प्रारंभ) से देखते हैं, अंत से नहीं । संसार के सुख देखने में अच्छे लगते हैं किन्तु अंत बुरा होता है । संसार की समस्त सुंदर वस्तुओं में ऐसा अनुभव होता है जैसे बम रखे हों । ऐसा अनुभव किसको होता है ?
श्रावक को ! प्रत्येक पदार्थों में मोह राजा ने राग-द्वेष के बम रखे हैं। * श्रावक के श्रावकत्व की जहोजलाली कैसी लगती है ?
यह जन्म भोग के लिए नहीं योग के लिए मिला है । राग के लिए नहीं, त्याग के लिये, पुद्गल की रमणता के लिए नहीं, आत्म रमणता के लिए मिला है । आसक्ति श्लेष्म
है, अनासक्ति शक्कर है । श्रावक (मक्खी तरह) शक्कर पर बैठता है। * बंध प्रवृत्ति से पड़ता है अनुबंध विचारों से। * विचारों से पाप को दूर हटा देना, उसका नाम भावधर्म, भाव धर्म निश्चय की
बात है । द्रव्य धर्म व्यवहार की। * संसार के प्रति अभाव और मोक्ष के प्रति अहोभाव उसका नाम भावधर्म । * संसार बुरा, मोक्ष ही अच्छा । तन और मन के बीच दिवाल (समकित) इसी का
नाम श्रावकत्व। * दुनिया की बातें आत्मा को बेहोश बनाती है, परमात्मा की वाणी आत्मा को बाहोश
बनाती है।
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