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दो शब्द प्रस्तुत संग्रह के विषय में
आगम के अंग बारह कहे गये हैं। इन बारह के अंक के साथ प्रस्तुत संग्रह के विभाग भी अनायास बारह ही अस्तित्व में आए। यह भी मेरे लिए एक शुभ प्रसंग, प्रसादी रूप बन गया। 'परिशिष्ट' पूर्ति के बिना ग्रंथ की पूर्णाहुति कैसे हो सकती है ? इस विचार से अंत में व्याख्याएं, विशेष सूचना आदि को देकर संतोष का अनुभव किया ।
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'श्रुत भीनी आंखों में बिजली चमके' के अंग को प्रारंभ से इति तक, 'श्रुत' प्रक्षालन एवं तारक ऐसी जिनवाणी की उद्योतमय 'चमक' प्रदान कर सके, इस हेतु को सफल करने, भगवती 'ऐं' देवी सरस्वती की 'अर्चना' सह भावभीनी वंदना की । 'सुज्ञ' वाचक वर्ग को इस विशाल ग्रंथ का शुभ अनुभव हो एवं साथ ही इसके द्वारा 'शुभानुबंध' हो जाए ऐसी अंतर की अभ्यर्थना ... ।
संग्रह में अलग-अलग विषयों के हेतुपूर्वक ही खूब 'संक्षिप्त' स्वरुप में संकलन करने का प्रयत्न किया है, जिससे वाचक वर्ग को रस तथा विषय के प्रति एकाग्रता, सरलता, सहज भाव बना रहे ।
कल-कल बहती ‘श्रुत सरिता' का अगाध वक्तव्य, सब कुछ करके भी इस संकलन में सर्व गुण संपन्नतापूर्वक एकत्रित नहीं हो सकता है । परंतु आज के व्यस्त एवं दौड़भाग भरे जीवन में थोड़ा तो थोड़ा लेकिन सात्विक तत्व, एक नया एहसास हो सके ऐसी आशा जरूर रखी जा सकती है ना ? वाचक वर्ग के प्रतिसाद, क्षतियाँ सुधारनें में खूब उपयोगी सिद्ध होंगे। अग्रिम साभार प्रणाम ।
विविध विषयों में, जैन - शासन, चिंतामण रत्न के समान, इसके अचिंत्य प्रभाव के कारण शाश्वत, चमकता एवं जयवंत रहेगा। इस हेतु ही प्रस्तुत संकलन में "जैनम् जयति शासनम्' के हार्द को निरन्तर ध्यान में रखने का प्रयत्न प्रारंभ से अंत तक किया है । मानव से तीर्थंकर परमात्मा किस प्रकार बनते हैं ? उसका संक्षिप्त परंतु सचोट विवेचन से, जिनशासन के प्रति अपना मस्तक अति शुभ भाव से सहज ही झुक जाता है । विभाग के अंत में, सुवाक्य एवं आत्मज्ञान मानो कि यह सबकी साक्षी दे रहे हों ।
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