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अंत में इतनी बात समझ लीजिए * कली खिलेगी, फूल मुरझाएँगे। * सच को छिपाने का प्रयास करोगे तो एक नई भूल करने की तैयारी हो जाएगी। __ श्रीकृष्ण को राज्य, रानियाँ, वैभव और विलास बहुत अच्छा लगता था किन्तु हृदय में
धर्म, मुक्ति और परम पद का वास था। * सभी वस्तु प्रारब्ध (भाग्य) से ही मिलती हैं किन्तु धर्म तो पुरुषार्थ से ही मिलता है। * धर्म के बदले कोई भी वस्तु मांगना नियाणा (निदान) कहलाता है । यह शक्ति और
संपत्ति जैसे श्राप युक्त हो - ऐसे शांति नहीं देती। जो मिला है उसमें भी दुःख है और उसको संभालकर रखने की चिंता में ही एक दिन चिता पर सो जाना पड़ेगा जो कभी उठ ही नहीं पाओगे।
लग्न मनुष्य को नाथने की (बंधन) संसार की गहन व्यवस्था है। * मनुष्य तो भगवान जैसा ही है, परन्तु स्वयं की आदत (स्वभाव) से गुलाम हो गया है।
आज मनुष्य को कुछ नहीं चाहिए, कल इसी मनुष्य को सारी दुनिया कम पड़ती है। मोक्ष यदि आज कोई दे रहा हो तो हम कहेंगे - अभी नहीं । इतनी क्या जल्दी है ? मनुष्य इच्छा-विकार में जीवित हैं । प्रभु से स्वार्थ की मांग करके हम मलिन हो गए हैं।
मनुष्य तुच्छ वस्तु के लिए लड़ता है, मोक्ष के लिए नहीं। * अंतर से निकले हए शब्दों में आवाज होती है, उसमें सजीवता और मन की बुलंदी का
राज होता है। * मनुष्य को कितना कुछ मिलती है ? परन्तु कोई ही व्यक्ति मिला हुआ सफल करना
जानता है। * जो जैसा और जितना हमको मिलना चाहिए वैसा और उतना ही हमें मिलता है । उसमें
किसी का दोष निकालना गलत है। * पुण्य का फल खुशी-खुशी लेने वाला रोते-रोते भी पुण्य करने को तैयार नहीं होता
और पाप का फल स्वप्न में भी अच्छा नहीं लगता और पाप छोड़ने को तैयार नहीं। GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOOGO90 130 90GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGe