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जंबू स्वामी ने पूछा कि - उत्तराध्ययन का 30वां अध्ययन ' तपोगति मार्ग' का क्या अर्थ कहा है ? उन्होंने कहा कि - अनाश्रवी होना - अर्थात् जीव - अजीव - पुण्य-पाप और पांचवा आश्रव तत्व है, तुम आश्रव रहित होना ।
प्राणी की हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन (अब्रह्म) और परिग्रह उसी प्रकार रात्रि भोजन त्यागी, पांच समिति, 3 गुप्ति - युक्त, कषाय रहित, जितेन्द्रिय, गौरव रहित, 3 आसक्तियाँ (ऋद्धि गौरव, शाता गौरव, रस गौरव) और 3 निशल्य ( माया शल्य, नियाणा शल्य, मिथ्यात्व शल्य) युक्त आत्मा निराश्रवी होती है ।
लाखों वर्षों तक उपार्जित किए हुए दुष्ट कर्मों को दूर करने के पीछे लाख वर्ष की आवश्यकता नहीं होगी । लकड़ी गट्ठर जैसे दुष्ट कर्म हैं, उनको तपरुप चिनगारी करोड़ों भवों के पापों को क्षण में विनाश कर देती है । प्रभु ने कैसा तप किया ? तुम्हें भी करना है । तप के बिना मुक्ति नहीं । मर-मर के, गिर - गिर कर भी तप करने की आदत डालना ।
दर्पण जैसे होना । दर्पण कुछ भी पकड़ता नहीं । जो उसके सामने आता है वो उसके आकार जैसा हो जाता है । वस्तु खिसते ही दर्पण वापिस खाली, आत्मा जैसा ।
आचरण : आंतरिक संपदा
आचरण ही तुम्हारे जीवन की आंतरिक संपदा है ।
चरण विधि :- आचरण : आत्मा को आचरण का ही शरण है, यह बात ही आत्मा को परम सुख और शांति देने वाली है ।
उत्तराध्ययन सूत्र के 31वें अध्ययन से अचल, अखंड और अमल रुप प्रभुता के स्वामी महावीर प्रभु 1-2-3-4 आदि वस्तुएँ जो आत्मा के लिए उपयोगी है वह आंतरिक संपत्ति (Internal Prosperity) समझाते हैं :
अमर,
अविनाशी
राग-द्वेष का बंधन, प्रेम और बिछोह आदि
आत्मा
1.
2. बंधन
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