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________________ पाप की प्रवृत्ति का 'संस्कार' जीव के साथ ही रहता है, शरीर छूट जाता है पर संस्कार नहीं छूटते । गुरु शिष्य के मस्तक पर हाथ रखकर कहते हैं 'नित्थारग पारगाहोइ' अर्थात् तुम दुःख के सागर से तैर कर जल्दी किनारा प्राप्त करो । शांति समाधि अनमोल है, शांति के लिए जल्दी सब कुछ छोड़ने को तैयार होना चाहिए । जीवन की श्रेष्ठता शांति में है । व्यर्थ की दौड़ अशांति उत्पन्न करती है । स्वास्थ्य में अंतराय उत्पन्न करेगा। जीवन में परोपकार करने योग्य कार्य है । जीवन व्यवस्था में आनंद देनेवाला गुण है। अन्य के दोषों को देखकर उन्हें याद करते रहने से जीवन व्यवस्था में दरार पड़ जाती है अविनीत (अविवेकी अविनयी) जीवन को नि:शक्त (ढीठ) बैल की उपमा दी गई है । इसी बैल को खूंटे पर बांध दो यदि उसे वहाँ नहीं रूकना है तो उसमें खूंटा उखाड़कर भागने की शक्ति रहती है किन्तु गाड़ी उसको आराम से खींचना है तो वह ढीठ होकर बैठ जाएगा, आद दुष्ट हो जाएगा। काम करने में अपंग होकर बैठ जाएगा। गर्ग ऋषि के शिष्य सभी ढीठ बैल जैसे थे । तन से अशक्त नहीं किन्तु मन से अशक्त थे । कामचोर थे । महावीर प्रभु की बातों को समझो धर्म क्रिया में पीछे न रहो । धर्म क्रिया ही मोक्ष देने वाली है अत: धर्म साधना है सर्वस्व है । I नागार्जुन और पादलिप्तसूरि :- नागार्जुन ने स्वर्ण सिद्धि का रस सिद्ध किया । उसने तुंबड़ी में उसे भरकर अपने गुरु पादलिसूरि प्रथम भेंट के रूप में भेजी। गुरु ने उसे महत्व नहीं दिया; तुंबड़ा लुढ़क गया और रस ढुल गया । नागार्जुन तो यह देखकर रोने लगा । आपने इसे लापरवाही के कारण दुर्लभता से प्राप्त ऐसा सुवर्ण रस ढोल दिया । इससे कितना ही मण सोना बन जाता । सिद्ध पुरुष को मैं क्या कहूँगा ? नागार्जुन ने पूछा : गुरु ने कहा परेशान मत हो, पादलिप्तसूरि ने अपना मूत्र (पेशाब) तुंबड़ी में भर कर दे दिया। तेरा रस तूझे दे दिया । वह लेकर नागार्जुन रवाना हो गया। गुरु की उपेक्षा कैसे की जा सकती 116
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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