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फिर आप भी क्या हो ? भगवान के यह शब्द अत्यन्त ही जानने समझने जैसे हैं । तो क्या ? (उपालंभ देते हैं)
* आशीष के सहारे क्लेश का सागर तिर जाना है, साथ ही पुरुषार्थ का हौंसला बुलंद करना है ।
जो स्वयं के अजर अमर एक आत्मा को जानते हैं, वह संसार के समस्त भाव को जान लेता है। जो गं जाणई सो सव्व जाणई ।
भगवान ने कहा है :
* मनुष्य को मार्ग की जानकारी होना चाहिए । मार्ग एवं उन्मार्ग, ज्ञान से जाना जाता है । अज्ञानी या अर्ध विद्वानों द्वारा बताया हुआ उन्मार्ग ही है । अज्ञ जीव चलते तो बहुत हैं, परन्तु पहुँचते कहीं नहीं ।
* जीव जब सतत घसीटता, खींचा जा रहा है तब शरण - आशरारुप द्वीप, उत्तम धर्म द्वीप ही है । इस सत्य रुपी द्वीप पर समुद्र या जलराशि का प्रवाह पहुंच नहीं सकता । जन्ममरण का प्रवाह ऐसा ही है ।
* 'आश्रव' रहित शरीर नाव है । जीव नाविक है । संसार भव सागर है, उससे पार उतरना है। जिनेश्वर रूपी सूर्य, जीवों को मोह रूपी अंधकार को दूर कर सर्व तत्व विषयक प्रकाश रूपी उजाला प्रदान करेगी ही ।
* मोक्ष के अन्य नाम - निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेत्र, शिव, अनाबाध, अचल, अनंत, अपुनरावर्त आदि ।
* एक जैनों के अनेक-अनेक भेद आज प्रचलित हुए हैं - उसमें मुख्य दो हैं -
(1) श्वेताम्बर : (1) मंदिर मार्गी (2) स्थानकवासी (3) तेरापंथी । इस के अलावा भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक में त्रिस्तुतिक गच्छ, तपागच्छा, पार्श्वचन्द्रगच्छ, खरतरगच्छ, अचलगच्छ, लोकागच्छ । इसमें भी छोटी-बड़ी बातों के भेद के कारण अलग-अलग शाखाएँ हैं ।
(2) दिगम्बर : (1) तेरा पंथी (2) वीसपंथी ।
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