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* संसार की व्यवस्था में कहीं भी अंधाधुंध या छीना-झपटी नहीं है । जितना और जैसा प्राप्त होना चाहिए था उतना और वैसा हमें मिला है। आखिर तो जैसा बोया है वैसा ही मिलेगा और जितना खर्च किया है उतना ही मिलेगा। इसमें कल्पांत करना या असंतोष रखना या किसी अन्य का दोष निकालना गलत है ।
* तीर्थंकर परमात्मा संसार की सर्वश्रेष्ठ हस्ति एवं उत्तमोत्तम पात्र हैं । उनके नाम या निमित्त से जिस किसी द्रव्य की उपज होती है वह सब देवद्रव्य कहलाता है। यह द्रव्य मंदिर, मूर्ति या जीर्ण मंदिर के उद्धार में ही उपयोग किया जा सकता है और उसका अचिंत्य लाभ मिलता है ।
* प्रेम एवं वात्सल्य आदि ऐसी वस्तु है जैसे-जैसे परिचय बढ़ता है, वैसे-वैसे सामीप्य बढ़ता है उसी प्रकार प्रीति-भक्ति एवं अनुराग भी बढ़ता है । आप अंतर से संपूर्णता प्राप्त करना । कभी ऐसा ना हो कि दूसरा सब कुछ पाने में अंतर से अपूर्णता रह जाए ।
* भगवान कहते हैं लाखों वर्ष पश्चात् ऐसे सुंदर संयोग आपको मिले हैं, उन्हें आप
अपव्यय ना करना ।
* महाभाग मनुषतन पाई, बामे भी कछु करी न कमाई ।
* मनुष्य को कितना मिलता है ? कुछ ही मिले हुए को सफल कर पाते हैं । उन्हें सबका सब कुछ समझ में आता है । मात्र स्वयं का समझ नहीं पाते ।
* विनय तो आत्मा की विशाल संपदा है । विनयहीन आत्मा जैसा दुःखी, दरिद्र एवं रोगी अन्य कोई नहीं । विनय बिना विद्या रहती नहीं ।
* जीवों के उपकार हेतु, काल का प्रभाव जानकर प्रभु महावीर ने वक्र एवं जड़ प्रजा को पांच व्रतों का उपदेश दिया है। प्रथम जिनेश्वर के समय की प्रजा को सरल एवं जड़ तथा मध्य बावीस जिनेश्वर की प्रजा को ऋजु एवं प्राज्ञ कहा गया है ।
* पराधीनता घोर बन्धन है । ममत्व माया के बंधन कठिन एवं जटिल हैं ।
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