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दुःख की अवस्थाएँ बदलती जाती हैं । अरे, दुःख सभर नारकी जीवन भी एक दिन पूर्ण हो जाता है। इसलिए दु:ख की स्थिति में धैर्य, समता रखकर समय व्यतीत करना चाहिए । दुःख को धिक्कारे बिना आत्मशक्ति बढ़े इस हेतु आचार, ज्ञान-क्रिया, व्रत पच्चक्खाण द्वारा शक्ति अनुसार आत्मा को भावित करना चाहिए । इससे अशुभ भाव टूटते हैं । अशुभ बंधन ढीले पड़ते हैं । बारह भावना, चार मैत्री आदि भावना का चिंतन जीव को एक अनोखे स्तर पर पहुँचा देता है । धीरे-धीरे ऐसे प्रयत्नों से जीवन में समभाव की वृद्धि हुए बिना नहीं रहती । जीवन कल पूर्ण हो जाएगा। इस जीवन को खो देंगे तो पछताना ही पड़ेगा । जीवदया आत्मा के कोने-कोने में, प्रदेश-प्रदेश तक पहुंचा देना, बच जाओगे
शास्त्रानुसार धर्म दो प्रकार के होते हैं - 1. भाव धर्म, 2. प्रवृत्ति धर्म ।
समझ आने के पश्चात् प्रवृत्ति एवं भाव धर्म दोनों प्राप्त होते हैं । जब शक्ति ना हो तब भाव धर्म अगत्य का कार्य करता है । प्रवृत्ति धर्म भाव धर्म का कारण है । रोग अवस्था में आत्मा को भावित किया हो तो भावधर्म स्थायी ही रहता है । भाव धर्म होगा तो समाधि एवं सद्गति निश्चित है ऐसा शास्त्र विधान है | कीमत शक्ति की ही नहीं, शक्ति की I सार्थकता की एवं सद्व्यय की है । भाव हो तो भव पार हो सकता है । रोग अवस्था का समय बहुत आसानमय निकलता है । रोग अवस्था को गौण कर भावधर्म की सहायता लेकर स्वस्थता का अनुभव करें।
ऐ मन ! तू कैसे बिगड़ जाता है ?
कषायग्रस्त वासना मन बिगाड़ती है । दिमाग में क्या फिट कर रखा है वह दुःख का कारण बन सकता है । आपको जिन-जिन कारणों से दुःख होता है उसी प्रकार अन्य को भी उन्हीं कारणों से दुःख हाता है। आपको जो रूचिकर ना हो शायद अन्य को भी वह पसन्द ना हो ।
1. मन को बिगाड़ने वाला सबसे बड़ा शस्त्र 'अहंकार' माना जाता है । मान, झूठी मान्यताएँ, कल्पनाएँ, आग्रह है । इन्हें मन के विकार कहे हैं ।
2. दूसरा कारण अनादि से झूठी वासना एवं संस्कारग्रस्त आत्मा । यह वासना, संस्कार बाहर आए (शास्त्रीय भाषा में जब कर्म का उदय होता है), निमित्त सहित सा निमित्त रहित, मन बिगड़ता है । कर्मधारा जीवन में उठती है, मन गलत राह पर जाता है और मन बिगड़ता है।
१९७९ 78