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इतना बड़ा महालाभ करवाने वाला मंदिर जाने का मन कितने उल्लास, उमंग एवं विशुद्ध भावोल्लास से होना चाहिए उसे विचारें ।
जीव की खाऊँ - खाऊँ की आहार संज्ञा को 'पच्चक्खाण' द्वारा दबाकर भावोल्लास में वृद्धि करो । उपवास नहीं तो दिन में चार-पांच बार खाने का नियम पालने के लिए भी मन तैयार नहीं होता । तब मन का भावोल्लास विशुद्ध हो इसलिए (1) अत्यंत कर्तव्य बुद्धि हो ऐसा विचारना, (2) आहारादि तथा क्रोध, लाभादि संज्ञाएँ जो पापमय है उन्हें रोकने का अभ्यास करना, (3) दुन्यवी ऐसे कोई भी फल की आशंसा नहीं करना ।
इस प्रकार जिनदर्शन में जो चित्त स्थिर रहे तो अद्भुत ध्यान योग का निर्माण होता है । मन को ऐसा लगता है कि :
हे प्रभु ! दिवस-रात मोह साधनों के दर्शन में व्यतीत कर दिए। अब तो वीतराग प्रभु के दर्शन कर जीवन के इस कीमती समय को सफल करुँ । मोह दर्शन से लगे हुए पाप के भार को उतारुँ । दर्शनम् पाप नाशनम् । संसार का मूल कारण राग- पाप जो जिनदर्शन से दूर होगा, वीतराग के दर्शन से कुछ मंद होवे, इसलिए दर्शन करने जाऊँ ।
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पश्चात् दर्शनार्थे उठे, चले, मंदिर के समक्ष आकर बाहर से ही प्रभु के प्रभु के दर्शन होते ही अंजलि को ललाट पर लगाकर ' णमो जिणाणं' कहें तथा क्रमश: फल का आंकड़ा बढ़कर मासक्षमण के फल तक पहुँच जाता है । क्योंकि प्रभु के समक्ष आते ही भावोल्लास में वृद्धि हो जाती है । चित्त की प्रसन्नता अर्थात् ध्यानयोग यहाँ से जमने लगता है । अब मंदिर में ‘निसीही' कहकर प्रवेश करते हुए संसार के समस्त व्यापार बंध होते हैं और चित्त शुद्ध दर्शन का अभिलाषी बनता है । पश्चात् प्रभु को तीन प्रदक्षिणा दी जाती है । यह प्रदक्षिणा भवभ्रमण को भस्म करने वाली है । इसमें अनंत ज्ञान - दर्शन - चारित्र की संपन्न का सुर गूंजित होता है । हृदय में ज्ञानादि के त्रय बीज का रोपण होता है जो कालान्तर में रत्नत्रयी का मधुर फल प्रदान करता है । फिर प्रभु के समक्ष कमर से (अर्द्ध झुकते हुए) नमन कर हाथ जोड़कर 'मो जिणाणं' कहकर दर्शन करते स्तुति बोलना । तथा स्तुति इस प्रकार करनी चाहिए कि जैसे हमारे हृदय की बात हम प्रभु को बता रहे हों ।
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