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________________ સશિખર [ ૧૭૮ इस पदवीको प्राप्तकर रखना योग्य है। मतलब अपने जीवनको ज्ञानकी उन्नति द्वारा पूर्ण शान्तिमय बनाकर अधर्म मार्गका निकंदन करने में तथा वीतरागके शासनकी उन्नति करने में हमेशह दत्तचित्त रहना । परन्तु जहांपर धर्मसे विरुद्ध अर्थात् अधर्मकी पुष्टि होती होवे तथा धर्म शास्त्रसे विरुद्ध कोइ भी पुरुष प्ररूपणा करता होवे एसे स्थानोमें शक्तिवान मनुष्यों को चुपकी पकडकर शान्तिको धारणकर बैठना अयोग्य है। क्यों कि शास्त्रकार भी लिखते है कि धर्मध्वंसे कृपालोपे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेनापि शक्तेन वक्तव्यं तनिषेधकम् ॥ १॥ भावार्थ:-कोइ पुरुष धर्मका नाशकर्ता होवे अर्थात् देवस्थान शानभंडार श्रीसंघ इत्यादि धर्मकारणोंका जो कोइ अधर्मोजन नाशकर्ता हो और कोइ दुष्टजन दयाधर्मका नाशकर्ता हो और कोइ दुष्ट जैन सिद्धान्तोंको अर्थोको उलटा प्ररूपता हो उस वख्त समर्थ पुरुषको उचित है कि विना बोलाए भी उन पूर्वोक्त अधर्मीयोका खंडनकरना इसका नाम अशान्ति नही किन्तु अत्यन्तही शान्ति है एसा समजकरके पुरातन तथा आजकलके जमानेके मिथ्यात्वमतोंका खंडन करनेमें तत्पर रहना जिस्से कि हजारों जीवोंका भला होवे वास्ते हमेशह इस बातका ख्याल रखना. ઉપરોક્ત આચાર્યશ્રીના વક્તવ્યના જવાબમાં મુનિ શ્રી લબ્ધિવિજયજીએ સમયોચિત પિતાનું નીચે મુજબ વક્તવ્ય જાહેર કર્યું હતું. - पूज्यवर्यश्री गुरुजी महाराज तथा पूज्य मुनिमंडल और अन्य सद्गृहस्थो! मेरे गुरुवर्यने आज मुजको जो उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इस बातका मैं अत्यन्त ऋणी हुं। और साथही
SR No.007266
Book TitleKavikulkirit Yane Suri Shekhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhisuri Jain Granthmala
PublisherLabdhisuri Jain Granthmala
Publication Year1939
Total Pages502
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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