SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० ] કવિલકરીટ ॐ नमो वीतरागाय ॥ नमः श्रीमद् विजयानंदसूरि पादपद्मेभ्योऽपि मुम्वई गिरगांव - लालबाग मुनि वल्लभ विजयादि तर्फसे मुनिवर्य श्री लब्धिविजयजी आदि योग्य वंदनानुर्वेदना सुखशाता के साथ मालूम होवे आपका प्रीति भरा पत्र मोला आनन्द प्राप्त हुआ बस इसी तरह हमेशहके लोए बना रहे यही श्री सद्गुरु महाराज से प्रार्थना है. इसमें शक नहीं दील्हिका पुण्य आजकाल सतेज है. जहां गइ हुइ राजधानी वापीस लोट आई. वहां प्रीति न आवे यह रोति या नीति नहीं हो सकती अत एव सुनपत पानिपत व थनेसर की खुशकी नीकल गई. यमुनाके तटकी ठंडी ठंडी हवाने ठंड पादी इतना हि नहीं बल्कि प्रीतिको हराभराकर मनोबागको सरसब्ज कर दीया. आपके लेकचरोंकी धूम चारोंही तर्फ घूम रही है. इसमें शक नहि पंजाबका पानी ही ऐसा है मगर अस्मदादिकोंकी तरह गुजरात के पानीकी असर न लगे तबतक ही संभव भी है पंजाब गुरु महाराजका धाम है अत एव अपने लीए तोर्थभूमि है तीर्थ भूमि फरसनेसे आत्मबल बढ़ता है तो शारीरिक बल बढे उसमे आश्चर्य हो क्या ? अन्यत्र गुरु निन्दकों का स्थान होनेसे उसकी संगति आत्मबलकी हानि कर सकती है. यदि वो शारिरिक बलकी हानि करे उसमें तो कहना ही क्या ? मगर इस बातकी सत्यता अनुभव बिना होनी दुर्लभ है जब आप स्वयं अनुभव करेंगे स्वयं हि विदित हो जायगा अस्तु समयानुसार जो कुच्छ हुआ देखलिया, जो कुच्छ होगा देखा जायगा मगर इतना
SR No.007266
Book TitleKavikulkirit Yane Suri Shekhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhisuri Jain Granthmala
PublisherLabdhisuri Jain Granthmala
Publication Year1939
Total Pages502
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy