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:: प्रस्तावना :
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अधिवेशन में सक्रिय भाग लूँ । मुझको और श्री ताराचन्द्रजी दोनों को उक्त अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रण मिले | श्री ताराचन्द्रजी ने मुझे अकेले को ही भेजा । भीलवाड़ा से ता० ८ अक्टोबर को मैं महमूदा बाद के लिए खाना हुआ और दो दिन दिल्ली ठहर कर ता० ११ को महमूदाबाद पहुँच ही गया ।
महमूदाबाद — सभा के सदस्यगण, प्रधान और मंत्री श्री जयकान्त तथा वैद्य बिहारीलालजी आदि प्रमुख जन मेरे से पहिले ही वहां आ चुके थे। ये सर्व सज्जन मुझ से बड़ो सौजन्यतापूर्ण मिले और मैं उन्हीं के साथ पंडाल में ठहराया गया । ता० १३ को निश्चित समय पर सभा का अधिवेशन प्रारंभ हुआ । उस दिन मेरा सारा समय एक-दूसरे से परिचित होने में और पुरवारज्ञातीय प्रतिष्ठित एवं अनुभवी जन, पंडित, विद्वान्गणों से पुरवारज्ञाति संबंधी ऐतिहासिक चर्चा करने में ही व्यतीत हो गया । ता० १४ को प्रातः समय अधिवेशन लगभग ८ बजे प्रारंभ हुआ। उस समय मेरा लगभग ४५-५० मिनट का पुरवारज्ञाति और पौरवालज्ञाति में सज्ञातीयत पर ऐतिहासिक आधारों पर भाषण हुआ । उससे सभा में उपस्थित जन अधिकांशतः प्रभावित ही हुये और बाद जो भी मुझ से मिले, वे आश्चर्य प्रकट करने लगे कि हमको तो ज्ञात ही नहीं था कि प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और हम एक ही हैं। ऐतद् संबंधी जो कुछ भी साधन-सामग्री मुझको उस समय और पीछे से मिल सकी, उसका उपयोग करके मैंने प्रस्तुत इतिहास के पृष्ठों में अपने विचार लिखे हैं । उनको यहां लिखने की आवश्यता अनुभव नहीं करता हूँ ।
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यहां भी मेरे साथ में एक अद्भुत घटना घटी और वह इस सुधारवाद के युग कम कम अद्भुत और विचारणीय है । ता० १४ को प्रातः होने वाले खुले अधिवेशन में एक पुरवारबंधु ने स्टेज पर खड़े होकर भाषण दिया था । अपने भाषण में उन्होंने यह कहा, 'लोदाजी के साथ बैठ कर जिन २ सज्जनों ने कल कच्चा भोजन किया, क्या उन्होंने ज्ञाति के नियमों का उलंघन नहीं किया ?' बस इतना कहना था कि सभा के मंत्री, प्रधान एवं अधिकांशतः सदस्य और श्रागेवान् पंडित, विद्वानों में आग लग गई। वे सज्जन तुरन्त ही बैठा दिये गये । इस पर मान्य मंत्री जयकान्त ने 'ओसवालज्ञाति' और उसके धर्म, आचार, विचारों पर अति गहरा प्रकाश डालते हुये उक्त महाशय को अति ही लज्जित किया । यह बात यहीं तक समाप्त नहीं हुई । जब भोजन का समय आया तो समाज के कुछ जनों ने, जो उक्त महाशय के पक्षवर्त्ती थे यह निश्चय किया कि लोढ़ाजी के साथ में भोजन नहीं करेंगे । यह जब मुझको प्रतीत हुआ, मैंने श्री जयकान्त और सभापतिजी आदि से निर्मिमानता पूर्वक कहा कि अगर मेरे कारण सम्मेलन की सफलता में बाधा उत्पन्न होती हो और समाज में संमति के स्थान पर फूट का जोर जमता हो तो मुझको कहीं अन्यत्र भोजन करने में यत्किंचित् भी हिचकचाहट नहीं है। इस पर वे जन बोल उठे, 'हम जानते हैं जैनज्ञातियों का स्तर भारत की वैश्य एवं महाजन समाजों में कितना ऊंचा है और वे आचार विचार की दृष्टियों से अन्य ज्ञातियों से कितनी आगे और ऊंची हैं। यह कभी भी संभव नहीं हो सकता है कि किसी मूर्ख की मूर्खता प्रभाव कर जावे । जहां हरिजनों से मेल-जोल बढ़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं, वहां हम वैश्य २ जिनमें सदा भोजन- व्यवहार होता आया है, अब क्योंकर साथ भोजन करने से रुक जावें । अगर यह मूर्खता चल गई तो पुरखारज्ञाति अन्य वैश्यसमाजों से कभी भी अपना प्रेम और स्नेह बांधना तो दूर रहा, उनके साथ बैठकर पानी पीने योग्य भी नहीं रहेगी और सुधार के क्षेत्र में आगे बढ़ने के स्थान में कोशों पीछे हट जायगी। यह कभी भी नहीं हो सकता कि आप उच्च कुलीन, उच्च ज्ञातीय होने पर भी और वैश्य होते हुये अलग भोजन करें