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________________ :: प्राग्वाट - इतिहास : प्रभासपत्तन - इस नगरी का जैन और वैष्णव ग्रंथों में बड़ा महत्व बतलाया गया है । सोमनाथ का ऐति हासिक मन्दिर इसी नगरी में बना हुआ है । महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ने प्रभासपचन में अनेक निर्माण कार्य करवाये थे, परन्तु दुःख है कि आज उनमें से एक भी उनके नाम पर नहीं बचा है। नगरी में से सोमनाथ - मन्दिर की ओर जाने का जो राजमार्ग है, उसमें पूर्वाभिमुख एक देवालय -सा बना हुआ है। मैंने उसका बड़ी ही सूक्ष्मता से निरीक्षण किया तो वह जिनालय प्रतीत हुआ । यवनशासकों के समय में वह नष्ट-भ्रष्ट किया जाकर मस्जिद बना दिया गया था | आज वह अजायबगृह बना दिया गया है और वर्तमान सरकार ने उसमें सोमनाथ मन्दिर के खण्डित प्रस्तर-अंश रख कर उसको उपयोग में लिया है। सारी प्रभासपत्तन में प्राचीन, विशाल और कला की दृष्टि से यही एक भवन है, जो प्रभासपत्तन के कभी रहे अति समृद्ध एवं गौरवशाली वैभव का स्मरण कराता है। मेरे अनुमान से महामात्य वस्तुपाल द्वारा प्रभासपचन में जो अनेक निर्माणकार्य करवाये गये हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय उसके इतिहास में आगे दिया गया है, यह देवालय - सा भवन उसका बनाया हुआ कोई जिनालय है। स्तंभों में ही हुई कीचकाकार मूर्त्तियां तोड़ दी गई हैं। गुम्बजों में रही हुई तथा नृत्य करती हुई, संगीतवाद्यों से युक्त देवी - श्राकृतियां खण्डित की हुई हैं। फिर भी अपराधियों के हाथों से कहीं २ कोई चिह्न बच गया है, जो स्पष्ट सिद्ध करता है कि यह भवन किस धर्म के मतानुयायियों द्वारा बनाया गया है । सोचा था वहां महामात्य वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित अनेक निर्माण के कार्यों में से कुछ तो देखने को मिलेंगे, परन्तु कुछ भी नहीं मिला और जो ऊपर लिखित एक भवन मिला, उसको देखकर दुःख ही हुआ और पूर्ण निराशा । प्रभासपत्तन से ता० ५ जुलाई को लौट चला और स्टे० राणी एक दिन ठहर कर ता० ८ जुलाई को अजमेर होकर रात्रि की ३ बज कर २० मिनट पर पहुँचने वाली गाड़ी से भीलवाड़ा सकुशल पहुंच गया । १८] संयुक्तप्रान्त-आगरा-अवध का भ्रमण भीलवाड़ा से 'अखिल भारतवर्षीय पुरवार ज्ञातीय महासम्मेलन' के अधिवेशन में, जो १३-१४ अक्टोबर सन् १६५१ को महमूदाबाद (लखनऊ) में हो रहा था, सभा के मानद मन्त्री द्वारा निमंत्रित होकर ता० ८-१०-५१ को गया था और पुनः ता० २० - १०-५१ को भीलवाड़ा लौट आया था । वैद्य बिहारीलालजी पोरवाल जो अभी फिरोजाबाद में चूड़ियों का थोक-धन्धा करते हैं कुछ वर्षों पहिले वे आहोर (मारवाड़) आदि ग्रामों में वैद्य का धन्धा करते थे । इनके पिता श्री भी इधर ही अपना धन्धा करते रहे थे । मन्त्री श्री ताराचन्द्रजी की इनसे पहिचान थी । इन्होंने जब किसी प्रकार यह जान पाया कि प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखा जा रहा है, इन्होंने ताराचन्द्रजी से पत्र-व्यवहार प्रारम्भ किया और उसके द्वारा इनका मेरे से भी परिचय हुआ । वैसे ये उधर पुरवार कहलाते हैं, परन्तु ये पुरवार और पौरवाल को एक ही ज्ञाति समझते हैं, अतः ये अपने को पौरवालज्ञातीय लिखते हैं और इनकी फर्म का नाम भी 'पौरवाल एन्ड ब्रदर्स' ही है । इन्होंने मेरा परिचय उक्त सभा के मानद मन्त्री श्री जयकान्त से करवाया। अधिवेशन में जाने के लगभग दो वर्ष पूर्व ही हमारा सम्बन्ध श्री जयकान्त से सुदृढ़ बन गया था । हम दोनों में प्राग्वाट - इतिहास लेकर सदा पत्र-व्यवहार चलता रहा। मेरी भी इच्छा थी और श्री जयकान्त की भी इच्छा थी कि मैं उनकी सभा के निकट में होने वाले
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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