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हे प्राचाट-इतिहास
[तृतीय
श्राविका सदेवी वि० सं० १५४८
भग्वाटशातीय श्रेष्ठि धीरा की धर्मपत्नी सद् नामा ने पुत्र प्रासधर, रूपराज के सहित वि० सं० १५४८ का०शु०३ गुरुवार को श्री अणहिलपुर में तपागच्छीय श्रीमद् जिनरलसरि के शिष्य पं. पुण्यकार्निगणि के शिष्यप्रवर पं० साधुसुन्दरगणि के पठन के लिये श्री ‘उत्तराध्ययनस्त्र' नामक प्रसिद्ध अंथ की प्रति लिखवायी ।१ श्री ज्ञानभण्डार संस्थापक नंदुरवारवासी प्राग्वाटज्ञातीय सुश्रावक
श्रेष्ठि कालूशाह वि० सं० १५५१
विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में नंदुरवारवासी प्राग्वाटझातीय श्रेष्ठि भीम अति विख्यात संघपति हुआ है। वह दृढ़ जैनी था। उसका पुत्र डूंगर भी वैसा ही प्रसिद्ध एवं पुण्यशाली हुआ । डूंगर का पुत्र गुणराज था । गुखराज भी अति गुणवान् एवं दृढ़ जैनी था । गुणराज ने पदोत्सव एवं प्रतिष्ठोत्सव करवाये तथा श्री शत्रुजयमहातीर्थ रैवंततीर्थ, जीरापल्लीतीर्थ, अर्बुदतीर्थ की यात्रायें की और अपने न्योयोपार्जित द्रव्य का इस प्रकार व्यय करके अपार कीर्ति प्राप्त की । श्रे० गुणराज का पुत्र कालू हुआ । कालू के तीन स्त्रियाँ थीं-जसमति, ललतादेवी और वीरादेवी । कालू अपने पिता के सदृश ही धर्मात्मा एवं पुण्यशाली हुआ । उसने स्वोपार्जित द्रव्य को तथा पूर्वजों से प्राप्त अतुल द्रव्य को जैनमन्दिरों के निर्माण में, पूजाओं में, पुस्तक-लेखनों में तथा संघ की सेवाओं में व्यय किया । जीवन में उसने अतिशय दान दिया तथा कोश, आगम, सूत्र एवं वृत्तियाँ लिखवाई। श्रे० कालुशाह ने मुनिवर्य वाचक श्रीमद् महीसमुद्र का सदुपदेश श्रवण करके एक विशाल ज्ञान-भण्डार की स्थापना की और समस्त
आगम-सिद्धान्तों की सटीक प्रतियाँ लिखवाकर उसमें संस्थापित की। महोपाध्याय श्रीमद् महीसमुद्र के शिष्य पं० कनकविजयगणि के निरीक्षण में उक्त ज्ञान-भण्डार की स्थापना एवं सिद्धान्तों का लेखन-कार्य पूर्ण करवाया गया था। उसने श्री 'पिंडनियुक्ति' की भी प्रति वि० सं० १५५१ आश्विन शु० १० शुक्रवार को लिखवाई थी। यह प्रति मु० श्री० हं० वि० सं० शास्त्रसंग्रह बड़ोदा में विद्यमान है ।२
१-प्र०सं० भा०२ पृ० ५० प्र०१६७ (उत्तराध्ययनसत्र) २-लीबड़ी, भावनगर, पत्तन,जैसलमेर के ज्ञान-भण्डारों में श्रे० कालूशाह द्वारा लिखवाई गई कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं:
वि० सं०१५५१ आषाढ शु०१० शुक्रवार को 'व्यवहारभाष्य' की प्रति लिखवाई गई। यह प्रति भावनगर-ज्ञान-भण्डार में विद्यमान है।
लीबड़ी के ज्ञान-भण्डार में 'आचारागनियुक्ति' 'सत्रकृतांगवृत्ति की प्रतियाँ विद्यमान हैं। 'श्री जिनभवन-जिनार्चा-पुस्तक-संघादिके सदप्तक्षेत्रे । वित्तव्य यस्य कर्ता दानार्थि जनान् समुद्धर्ता ॥५॥ श्रीमत्कालूनाम्ना निजकर कमलार्जितेन वित्तेन । चित्कोशे सिद्धांताः ससूत्रका वृत्तिसंयुक्ताः॥६॥ श्रीमद्वाचकनायक महीसमुद्राभिधानमुखकमलात् । लब्ध्वा वरोपदेशं नंदंतु लेखिताः सुचिरं ॥७॥' जै० सा०सं० खं०३ अं०२ पृ०१६६.-'व्यवहारभाष्य' की प्रशस्ति । प्र० सं०भा०२ पृ० ५२ प्र०२०५( पडनियुक्ति)