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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-० धर्मा :: [ ३६६
साध्वी स्त्री थी। उसके धर्म नामक पुत्र हुआ । धर्म चतुर, निर्मलबुद्धि एवं धर्ममर्म का जाननेवाला था । धर्म की स्त्री रत्नावती थी । रत्नावती सचमुच ही गुणरत्नों की खान थी । वह विशुद्धहृदया, शुद्धशीला स्त्री थी। उसके अजितचूला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। अजितचूला पापरूपपंक का शोषण करने में समर्थ ऐसा दुस्तप करनेवाली थी। अजितचूला के एक भाई भी था, जिसने साधुदीक्षा ग्रहण की थी और वह विनयानन्द नाम से विख्यात हुआ था । मुनि विनयानन्द भी विनयादिगुणालय, साधुशिरोमणि, परमहंस साधु था।
श्रे० धर्म धर्मकृत्यों के करने में सदा तत्पर रहता था। उसने यौवनावस्था में ब्रह्मचर्य का पूर्ण परिपालन किया था । वह नित्य 'पंचशक्रस्तव' करके मनोहारिणी भूरिभक्ति से जिनेश्वरदेवों की प्रतिमाओं के दर्शन और उनका पूजन करता था । उसने विशाल वैभव के साथ में श्री अर्बुदतीर्थ की संघयात्रा की थी। इस संघयात्रा में उसके मामा संघवी कर्मण और लक्ष्मसिंह नामक अति प्रसिद्ध, पुण्यकर्मा व्यक्ति भी अपने प्रसिद्ध पुत्र गोधा और लींबादि के सहित सम्मिलित हुये थे। श्रे० धर्म ने संघ का आतिथ्य बड़ी भक्ति एवं भावनाओं से किया था तथा संघ और गुरु का पूजन तथा अर्चन सोत्साह करके संघयात्रा सफल की थी । धर्म ने देवकुलपाटक (देलवाड़ा) के
आदिनाथ-जिनालय में कुल का उद्योत करने वाली देवकुलिका विनिर्मित करवाई थी। तपागच्छाधिपति श्रीमद् सोमसुन्दरमरि का सदुपदेश श्रवण करके उसने लक्षग्रन्थमान (लाख श्लोक-प्रमाण) आगम पुस्तक, जिनमें अभयदेवकृतवृत्तियुक्त 'औपपातिकसूत्र' आदि प्रमुख गण्य हैं वि० सं० १४७३ फा० कृ० ४ बुधवार से वि० सं० १४७४ मार्ग शु० ६ रविवार पर्यन्त विप्रज्ञातीय नागशर्मा से अणहिलपुरपत्तन में लिखवाये और स्वद्रव्य को सप्त क्षेत्रों में व्यय किया ।१
श्राविका माऊ वि० सं० १४७६
____ श्री अणहिलपुरपत्तन में देवगिरिवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय सा० सलखण भार्या धनू की पुत्री माऊ नामा ने तपाधिराज श्री सोमसुन्दरमरि के उपदेश से संवत् १४७६ वैशाख शु० ५ गुरुवार को 'स्याद्वादरत्नाकर' प्रथम खण्ड लिखवाया २
श्रेष्ठि धर्मा
वि० सं० १४८१ हडाद्रनगर का महत्त्व जैनतीर्थों के स्थानों में प्राचीन एवं विशिष्ट है। वहाँ वि० शताब्दी पंद्रहवीं में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लाखा नाम का एक प्रसिद्ध व्यक्ति रहता था । श्रे० लाखा अति ही सज्जन, उदारहृदय और १-३० पु० प्र० सं० पृ० ४७ प्र० ४७ D.C.M.P. (G. 0. S. Vo. LXXVT.) P. 214 (548)
जै० पु० प्र० सं० पृ०१४२ प्र० ३४० (औपयातिकसूत्रवृत्ति) २-जै० पु०प्र० सं० पृ०१४३ प्र० ३४३ (स्थाद्वादरत्नाकर) D. C. M. P. (G.O. S. Vo. LXXVI) P. 202 पर 'माज' के स्थान पर 'भाउ' लिखा है।