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:: प्राग्वाट - इतिहास :
श्राविका आल्हू वि० सं० १४५४
विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लाषण खंभात नगर में महादयालु, यशस्वी एवं धर्मात्मा पुरुष हो गया है । उसका विवाह रूपगुणसम्पन्ना साऊ नामा कन्या से हुआ था । श्राविका साऊदेवी दृढ़ जैनधर्मी, स्त्रीशिरोमणि थी। उसके आल्हू नामा कन्या उत्पन्न हुई । आल्हू सुशीला, गुणवती कन्या थी । प्रभु-पूजन में उसकी सदा अपार श्रद्धा, भक्ति रही । उसका विवाह स्थानीय प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध व्यवहारी श्रीमंत वादा भार्या चांपलदेवी के पुत्र वीरम नामक अति गुणवान् युवक से हुआ था । श्रा० आल्हू ने तपागच्छनायक श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के उपदेश को श्रवण करके तथा धन, वैभव, ऋद्धि-सिद्धि को असार समझ कर वि० सं० १४५४ में खंभातवास्तव्य कायस्थकुलकमलरवि जाना नामक प्रसिद्ध पुरुष के पुत्र मंत्रीवर भीमा से बहुत द्रव्य व्यय करके ‘पञ्चांगीसूत्रवृत्ति' नामक पुस्तक लिखवाई | १
श्राविका रूपलदेवी वि० सं० १४५६
[ तृतीय
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वि० पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में अणहिलपुरपत्तन में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वीर नामक श्रावक रहता था । वह व्रतनिष्ठ, सदाचारी, सभ्य एवं लब्धप्रतिष्ठ पुरुष था । उसके महापुण्यशाली वयज नामक पुत्र हुआ । श्रे० वयज की धर्मपत्नी माकूदेवी ( माऊदेवी ) थी । माकूदेवी चतुरा और अति सौभाग्यशालिनी स्त्री थी । वह अति उदार - हृदया एवं दयालु थी । उसके चार संतानें हुईं । तेजसिंह, भीमसिंह, पद्मसिंह नामक तीन पुत्र और रूपलदेवी नाम की एक पुत्री । रूपलदेवी गुणाढ़ था, सौभाग्यशालिनी थी । बालपन से ही वह धर्मरता, करुणार्द्रचेता, पुण्यकर्मकर्त्री तथा देव, गुरु में अतिशय भक्ति रखने वाली, नित्य कठोर तपकर्म करने वाली थी । तपागच्छनायक श्री देवसुन्दरसूरिगुरु के उपदेश को श्रवण करके उसने वि० सं० १४५६ में बहुत द्रव्य व्यय करके श्री ' पद्मचरित्र ' नामक ग्रन्थ की प्रति ताड़पत्र पर लिखवा कर पत्तन के ज्ञानभण्डार में स्थापित करवाई | २
श्रेष्ठ धर्म वि० सं० १४७४
विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राग्वाटज्ञातीय नरपाल, धनसिंह, खेता नाम के तीन प्रसिद्ध भ्राता हो गये हैं । उनका लक्ष नामक काका प्रसिद्ध व्यक्ति था । लक्ष की धर्मपत्नी झवकू अति पतिपरायणा एवं सती
१ - जै० पु० प्र० सं० पृ० ४५. ता० प्र० सं० ४५. २ - प्र० सं० भा० १५० ६२ ता० प्र०६८ (पद्मचरित्र)
D.C.M. P. (G.0.S.Vo.LXXVI.) P. 240 (395) D. C. M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 228 (371)