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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
चौरासी जैन ज्ञातियों के संबंध में सौभाग्यनंदिरि का संवत् १५७८ में रचित 'विमल - चरित्र' बहुत-सी महत्वपूर्ण सूचनायें देता है । परन्तु उसकी प्रेसकापी मैंने मुनि जिनविजयजी से मंगवा कर देखी तो वह बहुत शुद्ध होने से कुछ बातें अस्पष्ट सी प्रतीत हुई । इसलिये उनकी चर्चा यहां नहीं करता हूँ ।
उक्त ग्रंथ में दसा-वीसा-भेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी वर्त्तमान मान्यता से भिन्न ही प्रकार का वर्णन मिलता है । इसके अनुसार यह भेद प्राचीन समय से है । किसी बारहवर्षी दुष्काल के समय में अन्नादि नहीं 1 साढ़ी बारह न्यात और दसामिलने से कुछ लोगों का खान-पान एवं व्यवहार दूषित हो गया । सुकाल होने पर भी बीसा भेद वे कुछ बुरी बातों को छोड़ न सके, इसीलिये ज्ञाति उनका स्थान नीचा माना गया और तब से दस बिस्वा और बीस बिस्वा के आधार से लघुशाखा बृहदशाखा प्रसिद्ध हुई ।
वास्तव में विशेष कारणवश कभी किसी व्यक्ति या समाज में कोई समाजविरुद्ध व अनाचार का दोष आ गया हो उसका दण्ड जैनधर्म के अनुसार शुद्ध धर्माचरण के द्वारा मिल ही जाता है । कल का महान् पापी महान् धर्मात्मा बन सकता है। जैनधर्म कभी भी धर्माचरण के पश्चात् उसको अलग रखने या उसकी संतति को नीचा देखने का समर्थन नहीं करता । इसलिये अब तो इन दसा - बीसा - भेदों की समाप्ति हो ही जानी चाहिए। बहुत समय उनकी संतति ने दण्ड भोग लिया । वास्तव में उनका कोई दोष नहीं । समान धर्मी होने के नाते वे हमारे समान ही धर्म के अधिकारी होने के साथ सामाजिक सुविधाओं के भी अधिकारी हैं । हमारे पूर्वज भी तो पहिले जैसा कि माना जाता है क्षत्रिय आदि विविध ज्ञातियों के थे और उनमें मांस, मदिरादि खान-पान की अशुद्धि थी ही। पर जब हम जैनधर्म के झण्डे के नीचे आ गये तो हमारी पहिले की सारी बातें एवं अनाचार भुलाये जाकर हम सब एक ही हो गये । इसी तरह उदार भावना से हमें अपने तुच्छ भेदों को विसार कर उन्हें स्वधर्मी वात्सल्य का नाता और सामाजिक अधिकार पूर्णरूप से देकर प्रामाणित करना चाहिए। जैनाचार्यों ने नमस्कारमंत्र के मात्र धारक को स्वधर्मी की संज्ञा देते हुये उनके साथ समान व्यवहार करने का उपदेश दिया । अपने पूर्वाचार्यों के उन उपदेशों को श्रवण कर जैनधर्म के आदर्श को अपनाना ही हम सबका कर्त्तव्य है ।
जैनधर्म में ज्ञातिवादसम्बन्धी क्या विचारधारा थी, किस प्रकार क्रमशः इन ज्ञातियों का तांता बढ़ता चला गया इन सब बातों की चर्चा ऊपर हो चुकी है। उससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूलत: 'ज्ञाति' शब्द ज्ञातिवाद का कुप्रभाव और जन्म से सम्बन्धित था । एक प्रकार के व्यक्तियों के समूहविशेष का सूचक था । उससे जैनेत्तर ग्रंथों में ज्ञातिवाद होते २ यह शब्द बहुत सीमित अर्थ में व्यवहृत होने लगा, जिससे हम आज ज्ञातियों की संज्ञा देते हैं, वे वास्तव में कुल या वंश कहे जाने चाहिए । भारतवर्ष में ज्ञातियों के भेद और उच्चता नीचता का बहुत अधिक प्रचार हुआ । इससे हमारी संघ शक्ति क्षीण हो गई । आपसी मतभेद उग्र बने और उन्हीं के संघर्ष में हमारी शक्ति बरबाद हुई। आज हमें अपने पूर्व अतीत को फिर से याद कर हम सब की एक ही ज्ञाति है इस मूल भावना की ओर पुनरागमन करना होगा । कम से कम ज्ञातिगत उच्चता नीचता स्पर्शास्पर्श की भेदभावना, घृणाभावना और द्वेषवृत्ति का उन्मूलन तो करना ही पड़ेगा ।
ज्ञातियों और उनके गोत्रों सम्बन्धी जैनेतर साहित्य बहुत विशाल है । जैनसाहित्य में इसके सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य है ही नहीं | इसके कारणों पर विचार करने पर मुझको एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक अंतर का पता चला ।