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________________ :: भूमिका :: [ १७ वह यह है कि वैदिकधर्म में चारों वर्णों' की स्थापना के पश्चात् उनके धार्मिक और सामाजिक अधिकार, आजीविका के धंधे आदि भिन्न २ निश्चित कर दिये गये, इसलिये उनके सामने बार २ यह प्रश्न आने लगा कि यह वर्णव्यवस्था की शुद्धता कैसे टिकी रहे । इसलिये उन्होंने रक्तशुद्धि को महत्त्व दिया और उच्चता नीचता और स्पर्शास्पर्श के विचार प्रबल रूप से रूढ़ हो गये । प्रत्येक व्यक्ति को अपने गोत्र आदि का पूरा स्मरण व विचार रहे; इसीलिये गोत्र शाखाप्रवर आदि की उत्पत्ति, उनके पारस्परिक संबंध आदि के संबंध में बहुत से ग्रंथों में विचार किया गया जब कि जैनधर्म इस मान्यता का विरोधी था । उसमें किसी भी ज्ञाति अथवा वर्ण का हो, उसके धार्मिक अधिकारों में कोई भी अन्तर नहीं माना गया । सामाजिक नियमों में यद्यपि जैनाचार्यों ने विशेष हस्तक्षेप नहीं किया, फिर भी जैनसंस्कृति की छाप तो सामाजिक नियमों पर भी पड़नी अवश्यंभावी थी । आठवीं शताब्दी के लगभग जब जैनाचार्यो ने एक नये क्षेत्र में जैनधर्म को पल्लवित और पुष्पित किया तो नवीन प्रतिबोधित ज्ञातियों का संगठन आवश्यक हो गया । उन्होंने इच्छा से श्रीमाल, पौरवाल और ओसवाल इन भेदों की सृष्टि नहीं की । ये भेद तो मनुष्य के संकुचित 'अहं' के सूचक हैं। इनका नामकरण तो निवासस्थान के पीछे हुआ है । जैनाचार्यों ने तो इन सब में एकता का शंख फूंकने के लिये स्वधर्मी वात्सल्य को ही अपना संदेश बनाया। उन्होंने अपने अनुयायी समस्त जैनों को स्वधर्मी होने के नाते एक ही संगठन में रहने का उपदेश दिया । भेदभाव को उन्होंने कभी प्रोत्साहन नहीं दिया । यह तो मनुष्यों की खुद की कमजोरी थी कि जैनधर्म के उस महान आदर्श एवं पावन सिद्धान्त को वे अपने जीवन में भलीभांति पनपा नहीं सके । पर जब आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के मध्यवर्त्ती जैन इतिहास को टटोलते हैं तो हमें जैनाचाय्य के आचारों में शिथिलता जोरों से बढ़ने लगी का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । उसका मूल कारण उनका जैन चैत्यों में निवास करना था । इसी से यह काल 'चैत्यवास का प्राबल्य' के नाम से जैन इतिहास व साहित्य में प्रसिद्ध हुआ मिलता है । जब जैन मुनि निरन्तर बिहार के महावीर - मार्ग से कुछ दूर हट कर एक ही चैत्य में अपना ममत्व स्थापित कर रहने लगे या लम्बे समय तक एक स्थान पर रहने से ममत्व बढ़ता चला गया; यद्यपि उनका चैत्यावास पहिलेपहिल सकारण ही होगा, मेरी मान्यता के अनुसार जब इन नवीन ज्ञातियों का संगठन हुआ तो इनको जैनधर्म में विशेष स्थिर करने के लिये जैन चैत्यों का निर्माण प्रचुरता से करवाया जाने लगा और निरंतर धार्मिक उपदेश देकर जैन आदर्शों से श्रोत-प्रोत करने के लिये मुनिगणों ने भी अपने विहार की मर्यादा को शिथिल करके एक स्थान पर — उन चैत्यों में अधिक काल तक रहना आवश्यक समझा होगा । परन्तु मनुष्य की यह कमजोरी है कि एक बार नीचे लिखे या फिर वह ऊँचे उठने की ओर अग्रसर नहीं होकर निम्नगामी ही बना चला जाता है । एक दोष से अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। छोटे-से छिद्र से सुराख बढ़ता चला जाता है । चैत्यावास का परिणाम भी यही हुआ । अपने उपदेश से निर्माण करवाये गये मन्दिरों की व्यवस्था भी उन जैन मुनियों को संभालनी पड़ी। उन चैत्यों में अधिक आय हो, इसलिए देवद्रव्य का महात्म्य बढ़ा । द्रव्य अधिक संग्रह होने से उसके व्यवस्थापक जैनाचार्यों की विलासिता भी बढ़ी । क्रमशः शिष्य और अनुयायियों का लोभ भी बढ़ा। अपने अनुयायी किसी दूसरे श्राचार्य के पास नहीं चले जायें, इसलिए बाड़ाबंदी भी प्रारंभ हुई । 'तुम तो हमारे अमुक पूर्वज के प्रतिबोधित हो; इसलिए तुम्हारे ऊपर हमारा अधिकार है, तुम्हें इसी चैत्य अथवा गच्छ को मानना चाहिए' इत्यादि बातों ने श्रावकों के दिलों में एक दीवार खड़ी करदी । अपने २ गच्छ, आचार्य
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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