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________________ खण्ड]: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह:: [३६१ के उद्देश्य के समक्ष तो मूर्तिपूजन, मन्दिर-निर्माण और तीर्थों के लिये की जानेवाली संघयात्राओं की विधियें भी आलोच्य बन गई और उस समय का मन्दिरविरोधी वातावरण भी श्रीमान् लोंकाशाह को स्वभावतः उधर ही खींचने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। हुआ यह है कि श्रीमान् लोकाशाह का विरोधी आन्दोलन अन्य दिशाओं में कम पड़ कर मन्दिरविरोधी दिशा में परिवर्तित होता हुआ बढ़ने लगा । जैसा आगे लिखा जायगा कि श्री भाणजी द्वारा मन्दिरविरोधी आन्दोलन तीव्रतर हो उठा और श्वेताम्बर-जैनसमाज दो खण्डों में विभाजित होता हुआ प्रतीत होने लगा। पत्तननिवासी प्रतिभासम्पन्न लखमसी आपकी ओजस्वी वाणी, तर्कशक्ति, शिथिलाचार-विरोधी-आन्दोलन से बहुत ही आकृष्ट हुये और वि० सं० १५३० में आपके शिष्य बन गये। प्रखर बुद्धिशाली लखमसी जैसे शिष्य को पाकर अब वि० सं०१५३१ से लोंकाशाह ने शिथिलाचारी यतिओं के विरोध में घोर आन्दोलन प्रारम्भ किया और शुद्धाचार एवं दयाधर्म का सबल प्रचार करने लगे। शिथिलाचारी चैत्यावासी यतिओं के कारण मन्दिरों में बढ़े हुये आडम्बर तथा असावधानी और शिथिलाचार के कारण होती हुई आलोच्य प्रक्रियाओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने लगे । लोकाशाह का चरित्र बड़ा ऊंचा था, वैसी ही उनकी बुद्धि भी अतळ थी, फिर समय भी उनके अनुकूल था; लोगों ने लोकाशाह के व्याख्यानों को बड़े ध्यान से सुना और थोड़े ही समय में उनके मत को मानने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हो गये। लोकाशाह आप दीक्षित नहीं हुये थे, परन्तु इनके अनेक भक्त दीक्षित होना चाहते थे । निदान लोकाशाह के वैराग्यरंगरंगित शिष्य सर्वाजी, हमालजी, भानजी, नूकजी, जगमालजी आदि पैंतालीस (४५) जन सिंध हैदराबाद में विराजमान इक्कीस साधुओं से युक्त श्रीमद् ज्ञानजी स्वामी की सेवा में लोकागच्छ की स्थापना पहुंचे और दीक्षा देने के लिये उनसे प्रार्थना की। वि० सं० १५२६ में वैशाख शु० त्रयोदशी को ज्ञानजी स्वामी ने श्रीमान् लोंकाशाह के पैंतालीस भक्तों को साधु-दीक्षा प्रदान करके लोंकागच्छ की स्थापना की। __इस लोंकागच्छ के आदि साधु भाणाजी थे। इन्होंने वि० सं० १५३१ में दीक्षा ग्रहण की थी। ये भी अरहटवाड़ा के निवासी और प्राग्वाटज्ञातीय थे । इन्होंने यतियों के विरुद्ध छेड़े गये आन्दोलन को पूर्णतः मूर्तिपूजा अमूर्तिपूजक आन्दोलन. के विरोध में परिवर्तित कर दिया। इन्होंने मूर्ति-पूजा का प्रचंड विरोध वि० सं० लोकाशाह का स्वर्गवास १५३३ से प्रारंभ किया। वि० सं० १५३७ में ये स्वर्गवासी हुये थे। स्थानकवासीसंप्रदाय के आदि साधु ये ही माने जाते हैं । साधुवर्ग ने भ्रमण करके लोंकाशाह के विचारों का थोड़े ही समय में वि० सं०१५४३ में लावण्यसमयकवि रचित चौपाई का अन्श:'पोसह पडिकमणु पच्चखाण, नवि माने श्रेईस्या++१३, जिनपूजा करिया मति टली, अष्टापद बहु तीरथ वली। नवि माने प्रतिमा प्रासाद,'+ १४ 'लुकई बात प्रकाशी इसी, तेहनु सीस हुउ लखमसी' जै० सा० सं० इति० पृ० ५०७ श्री मेरुतुङ्गाचार्यविरचित 'विचारश्रेणिः' अपरनाम स्थविरावली में मतोत्पत्तियों के संवत् देते समय 'लुकागच्छ' की उत्पत्ति के लिये लिखा है कि 'विरनि० २०३२ व० 'लुका जाता',अर्थात् वि० सं०१५६२ में 'लुकामत' की स्थापना हुई। सं०१५६२ में तो 'लुका' विद्यमान ही नहीं थे, अतः 'लुकामत' की उत्पत्ति का वीर सं०२०३२ या वि० सं० १५६२ मानना असंगत है। ___सं०१५३३ मा सिरोही पासेना अरघट्ट पाटकना (अरहट्टवाटक) वासी प्राग्वाटज्ञातिना भाणाथी प्रतिमानिषेधनो वाद विशेष प्रचार मा श्राव्यो।' जै० सा० सं० इति० पृ०५०८ लेख सं०७३७
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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