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प्राग्वाट-इतिहास :
[तृतीय
राजस्थान, मालवा और गूर्जरभूमि में दूर २ तक अच्छा प्रचार कर दिया । लोकाशाह अपनी शिष्य-मंडली सहित प्रमण करते हुये वि० सं० १५४१ में अलवर में पधारे । वहाँ आपको आपके शत्रुओं ने तेले के पारणे के अवसर पर आहार में विष दे दिया, जिसके कारण आपकी मृत्यु हो गई।
लोकागच्छीय पूज्य श्रीमल्लजी दीक्षा वि० सं० १६०६. स्वर्गवास वि० सं० १६६६
विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अहमदाबाद में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० थावर रहते थे। उनकी स्त्री का नाम कुंवरबाई था । श्रीमल्लजी इनके पुत्ररत्न थे । श्रीमल्लजी बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि और निर्मलात्मा थे । संसार में इनका मन कम लगता था । साधु-संतों की संगत से इनको बड़ा प्रेम था। निदान इन्होंने जीवाजी ऋषि के कर-कमलों से वि० सं १६०६ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ पंचमी को अहमदाबाद में भगवतीदीक्षा ग्रहण की। तप
और आचार इनका बड़ा कठिन था। थोड़े ही समय में इन्होंने साध्वाचार के पालन में अच्छी उन्नति की और शास्त्राभ्यास भी खूब बढ़ाया। वि० सं० १६२६ जेष्ठ कृष्णा ५ को इनको पूज्यपद से अलंकृत किया गया । अपनी आत्मा का कल्याण करते हुये, श्रावकों को जैन-धर्म का सदुपदेश देते हुये ये वि० सं० १६६६ आषाढ़ शु० १३ को स्वर्गवासी हुये । ये दशवें आचार्य थे और बड़े प्रभावक आचार्य थे। अतः इनके शिष्यगणों का समुदाय श्रीमल्लजी की सम्प्रदाय के नाम से विख्यात हुआ । स्थानकवासी-सम्प्रदाय में श्रीमल्लजी की सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान है और इसके अनुयायी भी अपेक्षाकृत अधिक संख्या में हैं।
लोकागच्छीय पूज्य श्री संघराजजी दीचा वि० सं० १७१८. स्वर्गवास वि० सं० १७५५
गूर्जरभूमि के प्रसिद्ध नगर सिद्धपुर में विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वासा अपनी पतिपरायणा स्त्री वीरमदेवी के साथ में सुखपूर्वक रहते थे। दोनों स्त्री-पुरुष बड़े ही धर्मनिष्ठ, शुद्धप्रकृति एवं निर्मलात्मा थे। वीरमदेवी की कुक्षि से वि० सं० १७०५ आषाढ़ शु० १३ को संघराज नामक पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र संघराज प्रतिभासम्पन्न और होनहार था ।श्रे. वासा जैसे धर्मनिष्ठ थे, उनका पुत्र संघराज भी वैसा ही धर्म के प्रति श्रद्धालु और सद्गुणी था । आखिर दोनों पिता-पुत्रों ने वि० संवत् १७१८ वैशाख कृ० १० गुरुवार को
जै० गु०क० मा०३ खण्ड २ पृ०२२०५-६-१२-१३