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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
उस समय जैनसमाज में भी शिथिलाचार एवं आडम्बर बहुत ही बढ़ा हुआ था । शिथिलाचार को अन्तप्रायः करने के लिये पूर्वाचार्यों ने समय २ पर कठोर प्रयत्न किये थे, परन्तु वह तो बढ़ता ही चला जा रहा था । जैन समाज में शिथिलाचार विशेषतः यतिगण बहुत ही शिथिलाचारी हो गये थे । ये मंदिरों में ही रहते थे, सुखाऔर लोकशाह का विरोध सनों में सवारी करते थे, सुन्दर वस्त्र धारण करने लग गये थे, इच्छानुसार खाते-पीते थे । पतिवर्ग ने मंत्र-तंत्र के प्रयोगों से जैनसमाज के ऊपर अपना अच्छा प्रभाव जमा रक्खा था । यतिवर्ग के शिथिलाचार को लेकर समाज में दो पक्ष बनते जा रहे थे । एक पक्ष चैत्यवासी यतिवर्ग के पक्ष में था और दूसरा विरोध में । इसी प्रकार अन्य धार्मिक स्थान जैसे पौषधशाला आदि में भी धार्मिक वर्त्तन शिथिलाचार एवं आडम्बरपूर्ण था। मंदिरों में भी आडम्बर बढ़ा हुआ था । पूजा की सामग्री में भी अति होती जा रही थी । दया का महत्व कम पड़ रहा था । इस सर्व धर्मविरुद्ध वर्त्तन का अधिक उत्तरदायी यतिवर्ग ही था । यतिवर्ग के इस शैथिल्य के कारण तथा उनके चैत्यनिवास के फलस्वरूप मंदिरों में होती हुई आशातनाओं के कारण मंदिर की ओर से लोगों को उदासीनता-सी उत्पन्न होने लग गई थी । इधर जैनसमाज के अंतर में यह सर्व हो रहा था और उधर यवन लोग मंदिरों को तोड़ने और मूर्त्तियों को खण्डित करने में अपना धर्म समझते थे । विक्रम की तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दियाँ जैन और हिन्दू धर्म के लिये बड़े ही संकट का काल रही हैं । यवन - शासक भारत में राज्य करते हुये भी भारतीय प्रजा का धन लूटने में, बहू-बेटियों का मान हरने में पीछे नहीं रहे । जहाँ इन्होंने मंदिरों को तोड़ा, वहाँ की स्त्रियों एवं कुमारी कन्याओं का भी इन्होंने अपहरण किया ही। मंदिर तोड़ कर उसको मस्जिद में परिवर्तित करना ये महान धर्म का कार्य समझते थे । अतः जहाँ २ इनको विश्रुत, समृद्ध मंदिर दिखाई दिये, इन्होंने आक्रमण किये; मंदिरों को तोड़ा, मूर्त्तियों को खंडित किया, वहाँ का धन-द्रव्य लूटा और वहाँ की बहू-बेटियों का मान हरा | जैन और हिन्दूसमाज में मन्दिरों के कारण बढ़ते हुये उत्पात पर मन्दिरविरोधी भावनायें जाग्रत होने लगीं और यह स्वाभाविक भी था । इस प्रकार जैनसमाज भी बाहर से संकटग्रस्त और भीतर से विकल हो रही थी । लोंकाशाह वैसे भी क्रांतिकारी विचारक तो थे ही और फिर लहिया का कार्य करने से आपको शास्त्रों का भी अच्छा ज्ञान हो गया था। जैनसमाज में धर्मविरुद्ध फैले हुये शिथिलाचार एवं आडम्बरपूर्ण धर्मक्रियाओं के विरोध में आपने आवाज उठाई और अपने विचारों का प्रचार करने लगे । आप दया पर अधिक जोर देते थे और दान की अपेक्षा दया का महत्व अधिक होना समझाते थे । पौषध, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान जैसी जैनधर्मक्रियाओं को अमान्य करते हुये आप विचरण करने लगे । अल्पतम हिंसावाली जैनधर्म की क्रियाओं का एवं विधियों का आपने विरोध किया और उनको, जिनमें थोड़ी भी हिंसा होती थी आपने शास्त्रनिषिद्ध बतलायीं । मूर्त्ति पूजन, मन्दिर निर्माण और तीर्थयात्राओं को भी दयादृष्टि से अपने अनागमोक्त बतलाया । चैत्यवासी यतिवर्ग के शैथिल्य के कारण जैनसमाज में विक्षोभ तो बढ़ता ही जा रहा था और मन्दिरों के कारण यवनआततायियों के होने वाले आक्रमणों पर मन्दिरों के प्रति एक विरोधी भावना जन्म ही रही थी; श्रीमान् लोकाशाह को जैनसमाज में इस प्रकार अपने विचारों के अनुकूल बढ़ता हुआ वातावरण प्राप्त हो गया । आप ग्राम- ग्राम भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करने लगे । मेरी समझ में श्रीमान् लोकाशाह की क्रांति पूर्णतः दया स्थापना के अर्थ एवं समाज में फैले हुये अतिशय आडम्बर और धर्मक्रियाओं में बढ़े हुये अतिचार के प्रति ही थी । जहाँ तक दयास्थापना का प्रश्न है आपकी क्रांति उस समय की समाज को प्रथम नहीं खरी; परन्तु पूर्णतः दया स्थापना