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:: श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु - चंचलगच्छीय श्रीमद् मेरुतुङ्गसूरि :: [ ३५५
अंचलगच्छीय श्रीमद् मेरुतुङ्गसूरि
दीक्षा वि० सं० १४१८. स्वर्गवास वि० सं० १४७३
वंश - परिचय
मरुधरप्रान्त के नाना (नाणा) नामक ग्राम में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के अन्त में और पन्द्रहवीं के प्रारम्भ में प्राग्वाज्ञातीय मीठड़ीयागोत्रीय बहरसिंह नामक श्रावक रहता था । उसकी धर्मपत्नी का नाम नाहल - देवी था । वि० सं० १४०३ में चरित्रनायक का जन्म हुआ और उनका नाम भालकुमार रक्खा गया । वि० सं० १४१८ में अंचलगच्छीय श्रीमद् महेन्द्रप्रभसूरि के कर-कमलों से आपने भगवती दीक्षा ग्रहण की और मुनिमेरुतुङ्ग नाम से प्रसिद्ध हुये । आपश्री अत्यन्त ही कुशाग्रबुद्धि थे । थोड़े वर्षों में ही अच्छी विद्वत्ता एवं ख्याति प्राप्त करली । आचार्य श्रीमद् महेन्द्रप्रभसूरि ने आपको अति योग्य समझकर वि० सं० १४२६ में आपको आचार्यपद प्रदान किया ।
चलगच्छ के महाप्रभावक आचार्यों में आप अग्रगण्य हो गये हैं। आपके विषय में अनेक चमत्कारी कथायें उल्लिखित मिलती हैं । लोलाड़नामक ग्राम में आप श्री एक वर्ष चातुर्मास रहे थे । उक्त नगर पर यवनों ने आक्रमण किया था । श्रपश्री ने नगर पर आयी हुई विपत्ति का अपने तेज एवं प्रभाव से निवारण किया ।
बड़नगर नामक नगर में नागर ब्राह्मणों के घर अधिक संख्या में बसते थे । एक वर्ष आपश्री का बड़नगर में पदापर्ण हुआ | आपश्री के शिष्य नगर में आहार लेने के आहार प्रदान नहीं किया। इस पर आप ने नगर श्रेष्ठि को जो शुद्धाचार से मुग्ध किया और समस्त ब्राह्मण समाज पर ऐसा प्रभाव
लिये गये; परन्तु श्रन्यमती नागर ब्राह्मणों नागर ब्राह्मणज्ञातीय था अपने मंत्रबल एवं डाला कि सर्व ने श्रावकत्रत अंगीकृत किया ।
एक वर्ष आपश्री ने पारकर - प्रान्त के उमरकोट नगर में चातुर्मास किया था । उमरकोटनिवासी लाल - गोत्रीय श्रावक वेलाजी के सुपुत्र कोटीश्वर जेसाजी ने आपश्री के नगर प्रवेशोत्सव को महाडम्बर सहित किया था
तथा चातुर्मास में भी उन्होंने कई एक पुण्यकार्य अति द्रव्य व्यय करके किये थे । चातुर्मास
उमरकोट में प्रतिष्ठा के पश्चात् आपश्री के सदुपदेश से उन्होंने बहोत्तर कुलिकाओं से युक्त श्री शांतिनाथ भगवान् का विपुल द्रव्य व्यय करके जिनालय बनवाया था और पुष्कल धन व्यय करके उसकी प्रतिष्ठा भी श्रापश्री के कर-कमलों से ही महामहोत्सव पूर्वक करवाई थी ।
के समय में हिलपुरपत्तन यवनों के अधिकार में था । यवन सूबेदार जिसका नाम हंसनखान होना लिखा है, आपश्री का परम श्रद्धालु था । उसके अश्वस्थल में से श्री गौड़ीपार्श्वनाथ भगवान् की एक दिन खोदकाम करते समय महाप्रभाविका प्रतिमा निकली। सूबेदार ने उक्त प्रतिमा अपने हर्म्य में संस्थापित 1 हंसनखान ने उक्त प्रतिमा को पारकरदेश से आये हुये मेघाशाह नामक एक श्रीमंत व्यापारी को सवा लक्ष मुद्रा लेकर प्रदान कर दी । श्रीमंत मेघाशाह आपश्री की आज्ञानुसार उक्त प्रतिमा को अपने देश पारकर में लाया और जिनप्रासाद बनवाकर उसको शुभमुहुर्त्त में संस्थापित किया ।
म०प० पृ० २२३ से २२६ गु० क० भा० २ पृ० ७७०- १. 'प्रबन्धचिंतामणि' के कर्त्ता मेस्तु गसूरि इनसे भिन्न नागेन्द्रगच्छीय मेस्तु गरि है ।