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प्राग्वाट-इतिहास:
[ तृतीय
न्यायशास्त्र के ये अच्छे विद्वान् थे। पत्तन में इन्होंने शैवमती वादियों को परास्त करके अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। वि० सं० १३०६ में खंभात में श्री संघ ने महोत्सव करके इनको मूरिपद प्रदान किया। खंभात से विहार करके
आप गांधार पधारे और वहाँ आपने चातुर्मास किया। इधर खंभात में नाणकशाखीय श्रीमद् महेन्द्रसरि का चातुर्मास हुआ। इसी चातुर्मास में महेन्द्रसूरि का देहावसान हो गया। खंभात के संघ ने स्वर्गस्थ श्रीमद् महेन्द्रसरि के तेरह शिष्यों में से किसी को भी योग्य नहीं समझ कर आपश्री को गांधार से बुलाया और महामहोत्सवपूर्वक श्रीमद् महेन्द्रसरि के पट्ट पर आपको विराजमान किया । इस प्रकार बृहद्गच्छ की दोनों शाखाओं में मेल हो गया। सिंहप्रभसरि यौवन, विद्या और अधिकार का मद पाकर परिग्रह धारण करने लगे। वि० सं० १३१३ में ही आपका स्वर्गवास हो गया ।१
अंचलगच्छीय श्रीमद्धर्मप्रभसूरि दीक्षा वि० सं० १३५१. स्वर्गवास वि० सं० १३९३.
- मरुधरप्रदेशान्तर्गत प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर भिन्नमाल में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि लिंबा की स्त्री विजयादेवी की कुक्षि से वि० सं० १३३१ में धर्मचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रेष्ठि लिंबा भिन्नमाल छोड़कर परिवार सहित जाबालिपुर (जालोर राजस्थान) में रहने लगा। जाबालिपुर में वि० सं० १३५१ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरिजी का बड़े ठाट-पाट से चातुर्मास हुआ । प्राचार्य के व्याख्यान श्रवण करने से धर्मचन्द्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया और निदान अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वि० सं० १३५१ में उपरोक्त आचार्य के पास में दीक्षा ग्रहण की और वे धर्मप्रभमुनि नाम से सुशोभित हुये । कुशाग्रबुद्धि होने से अल्प समय में ही आपने शास्त्रों का अच्छा अभ्यास कर लिया। आप को योग्य समझ कर वि० सं० १३५६ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने आपको जाबालिपुर में ही सरिपद प्रदान किया । वहाँ से विहार करके आप अनुक्रम से नगर पारकर(?) में पधारे और वहाँ परमारक्षत्रिय नव कुटुम्बों को प्रतिबोध देकर जीवहिंसा करने का त्याग करवाया । इस प्रकार आप प्रामानुग्राम भ्रमण करके अहिंसाधर्म का प्रचार करने लगे। वि० सं० १३७१ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो गया । गुरु के पट्ट पर आपश्री को गच्छनायकत्व का भार प्राप्त हुआ । लगभग बावीस वर्षे सूरिपन से शासन की सेवा करने के पश्चात् वि० सं० १३६३ माघ शु० १० को आसोटी नामक नगर में आपका स्वर्गवास हो गया ।२
१-म०प० पृ० २१४. २-म०५० पृ०२१८.
जै० गुरु क० भा०२ पृ०७६८. जै० गु० क० भा०२ पृ० ७६६ पर भूल से श्रीमाल ज्ञातीय लिखा प्रतीत होता है