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:: भूमिका:
[ १३ ओसवंश की स्थापना हुई । श्रीमालवंश की कुलदेवी महालक्ष्मी, पौरवाड़ों की अंबिका और मोसवालों की सचिया देवी मानी गई।
ऊपर जिस प्राचीन वंशावली का उद्धरण दिया है, उसमें श्रेष्ठि टोड़ा का निवासस्थान पूर्वली पोली और गोत्रजा अंबाई लिखा है, इससे वे पौरवाड़ प्रतीत होते हैं। ___ उपर्युक्त सभी उद्धरणों में एक ही स्वर गुंजायमान है, जो आठवीं शताब्दी में वर्तमान जैनज्ञातियों की स्थापना को पुष्ट करते हैं।
राजपुत्रों की श्राधुनिक ज्ञातियां और वैश्यों की अन्य ज्ञातियों के नामकरण का समय भी विद्वानों की राय में आठवीं शती के लगभग का ही है। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने अपने 'मध्ययुगीन भारत' में लिखा है, 'विक्रम की आठवीं शताब्दी तक ब्राह्मण और क्षत्रियों के समान वैश्यों की सारे भारत में एक ही ज्ञाति थी।
___ श्री सत्यकेतु विद्यालंकार क्षत्रियों की ज्ञातियों के संबन्ध में अपने 'अग्रवालज्ञाति के प्राचीन इतिहास' के पृ० २२८ पर लिखते हैं, 'भारतीय इतिहास में आठवीं सदी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की सदी है। इस काल में भारत की राजनैतिक शक्ति प्रधानतया उन ज्ञातियों के हाथ में चली गई, जिन्हें आजकल राजपुत्र कहा जाता है । भारत के पुराने व राजनैतिक शक्तियों का इस समय प्रायः लोप हो गया। पुराने मौर्य, पांचाल, अंधकवृष्णि, क्षत्रिय भोज आदि राजकुलों का नाम अब सर्वथा लुप्त हो गया और उनके स्थान पर चौहान, राठौर, परमार आदि नये राजकुलों की शक्ति प्रकट हुई ।'
स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर ने भी प्रोसवालवंश की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि, 'वीरनिर्वाण के ७० वर्ष में प्रोसवाल-समाज की सष्टि को किंवदन्ती असंभव-सी प्रतीत होती है ।' 'जैसलमेर-जैन-लेख-संग्रह' की भूमिका के पृ० २५ में 'संवत् पांच सौ के पश्चात् और एक हजार से पूर्व किसी समय उपकेश (ओसवाल) ज्ञाति की उत्पत्ति हुई होगी' ऐसा अपना मत प्रकट किया है।
ग्यारहवीं शताब्दी के पहिले का प्रामाणिक उल्लेख एक भी ऐसा नहीं मिला, जिसमें कहीं भी श्रीमाल, प्राग्वाट और उपकेशवंश का नाम मिलता हो। बारहवीं, तेरहवीं शताब्दियों की प्रशस्तियों में इन वंशों के जिन व्यक्तियों के नामों से वंशावलियों का प्रारम्भ किया है, उनके समय की पहुँच भी नवमीं शताब्दी के पूर्व नहीं पहुँचती । इसी प्रकार तेरहवीं शताब्दी के उल्लेखों में केवल वंशों का ही उल्लेख है, उनके गोत्रों का नाम-निर्देश नहीं मिलता । तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी के उल्लेखों में भी गोत्रों का निर्देश अत्यल्प है। अतः इन शताब्दियों तक गोत्रों का नामकरण और प्रसिद्धि भी बहुत ही कम प्रसिद्ध हुई प्रतीत होती है । इस समस्या पर विचार करने पर भी इन ज्ञातियों की स्थापना आठवीं शताब्दी के पहिले की नहीं मानी जा सकती।
इन ज्ञातियों की स्थापना वीरात् ८४ श्रादि में होने का प्रामाणिक उल्लेख सबसे पहिले संवत् १३१३ में रचित 'उपकेशगच्छप्रबन्ध' और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध' में मिलता है । स्थापनासमय से ये ग्रंथ बहुत पीछे के बने हैं, अतः इनके बतलाये हुये समय की प्रामाणिकता जहां तक अन्य प्राचीन साधन उपलब्ध नहीं हों, मान्य नहीं की जा सकती । कुलगुरु और भाटलोग कहीं-कहीं २२२ का संवत् बतलाते हैं। पर वह भी मूल वस्तु को भूल जाने