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________________ १२ ] प्राग्वाट-इतिहास:: जैनधर्म का प्रतिबोध दिया गया वे श्रावक दूसरे स्थान वाले श्रावकों द्वारा 'श्रीमालज्ञातिवाले' के रूप में प्रसिद्ध हुये। नौवीं शताब्दी में गुजरात के पाटण का साम्राज्य स्थापित हुआ। उसके स्थापक वनराज चावड़ा के गुरु जैनाचार्य शीलगुणसूरि थे। वनराज चावड़ा के राज्यस्थापना और अभिवृद्धि का श्रेय श्रीमद् शीलगुणसूरि को ही है। जैनों का प्रभाव इसलिये प्रारंभ से ही पाटण के राज्यशासन में रहा । नौवीं शताब्दी से ही श्रीमाल और पौरवाड़ के कई खानदान उस ओर जाने प्रारंभ होते हैं। इसमें कई वंश शासन की बागडोर को संभालने में अपनी निपुणता दिखाते हैं और व्यापारादि करके समृद्धि प्राप्त करते हैं। हां तो श्रीमाल, पौरवाड़ और ओसवालों में सब से पहिले श्रीमाल श्रीमालनगर के नाम से प्रसिद्ध हुये । उस बगर के पूर्व दरवाजे के पास बसने वाले जब जैनधर्म का प्रतिबोध पाये तो पाग्वाट या पौरवालज्ञाति प्रसिद्ध हुई और भीमालनगर के एक राजकुमार ने अपने पिता से रुष्ट हो कर उएसनगर बसाया और ऊहड़ नाम का व्यापारी मी राजकुमार के साथ गया था। उस नगरी में रत्नप्रभसूरिजी ने पधार कर जैनधर्म का प्रचार किया। उनके प्रतिबोधित श्रावक उस नगर के नाम से 'उऐसवंशी-उपकेशवंशी-ओसवंशी' कहलाये। पोरवालों एवं ओसवालों की कुछ प्राचीन वंशावलियां मैंने सिरोही के कुलगुरुजी के पास देखी थीं। उन सभी में मुझे जिस गोत्र की वे वंशावलियां थीं, उन गोत्रों की स्थापना व जैनधर्म प्रतिबोध पाने का समय ७२३, ७५०६० ऐसे ही संवतों का मिला। इससे भी वर्तमान जैनज्ञातियों की स्थापना का समय आठवीं शताब्दी होने की पुष्टि मिलती है । पंडित हीरालाल हंसराज के ‘जैन गोत्र-संग्रह' में लिखा है कि संवत् ७२३ मार्गशिर शु० १० गुरुवार को विजयवंत राजा ने जैनधर्म स्वीकार किया, संवत् ७६५ में बासठ सेठों को जैन बनाकर श्रीमाली जैन बनाये, संवत् ७६५ के फाल्गुण शु० २ को आठ श्रेष्ठियों को प्रतिबोध दे कर पौरवाड़ बनाये । यद्यपि ये उल्लेख घटना के बहुत पीछे के हैं, फिर भी आठवीं शताब्दी में श्रीमाल और पौरवाड़ बने इस अनुश्रुति के समर्थक हैं। अभी मुझे स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाई के संग्रह से उपकेशगच्छ की एक शाखा 'द्विवंदनीक' के प्राचार्यों के इतिवृत्तसंबंधी 'पांच-पाट-रास' कवि उदयरत्नरचित मिला है। उसमें 'द्विवंदनीकगच्छ' का संबंध लब्धिरत्न से पूछने पर जो पाया गया, वह इन शब्दों में उद्धृत किया गया है। 'सीधपुरीइं पोहता स्वामी, वीरजी अंतरजामी, गोतम आदे गहूगाट, बीच माहे वही गया पाट । वीस ऊपरे पाठ, बाधी धरमनो बाट, श्री रहवी (रत्न) प्रभु सूरिश्वर राजे, आचारज पद छाजे ॥ श्री रत्नप्रभमुरिराय केशीना केड़वाय, सात से संका ने समय रे श्रीमालनगर सनूर । श्री श्रीमाली थापिया रे, महालक्ष्मी हजूर, नउ हजा घर नातीनां रे श्री रत्नप्रभुसूरि ।। थिर महूरत करी थापना रे, उल्लट घरी ने उर, बड़ा क्षत्री ते भला रे, नहीं कारड़ियो कोय । पहेलु तीलक श्रीमाल ने रे, सिगली नाते होय, महालक्ष्मी कुलदेवता रे, श्रीमाली संस्थान ।। श्री श्रीमाली नातीनां रे, जानें विसवा बीस, पूरब दिस थाप्यां ते रे पौरवाड़ कहवाय । ते राजाना ते समय रे, लघु बंधव इक जाय, उवेसवासी रहयो रे, तिणे उवेसापुर होय ॥ ओसवाल तिहां थापिया रे, सवा लाख घर जोय, पोरवाड़कुल अंबिका रे, ओसवाला सचीया व । उपर्युक्त उद्धरण से सात सौ शेके में रत्नप्रभसरि श्रीमालनगर में आये। उन्होंने श्रीमालज्ञाति की स्थापना की। पूर्व दिशा की ओर स्थापित पौरवाड़ कहलाये। राजा के लघु बांधव ने उऐसापुर बसाया । वहां से
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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